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________________ कि प्रमाद के वश अपने स्थान से हटकर अन्यत्र जाने के बाद पुनः अपने स्थान पर लौटने के लिए जो क्रिया है, उसे ही प्रतिक्रमण कहते हैं। नियुक्ति के अनुसार चूर्णि में भी प्रतिक्रमण तीन दृष्टियों से किया है । प्रसंगोपात्त संबद्ध अन्य शब्दों का भी व्याख्यान किया है । पंचम अध्ययन में कायोत्सर्ग की व्याख्या के प्रारंभ में व्रण चिकित्सा का प्रतिपादन किया है कि व्रण (घाव या फोड़ा) दो प्रकार का होता है-द्रव्य व्रण और भाव व्रण। द्रव्य वर्ण की चिकित्सा औषधि आदि से होती है। भाव व्रण अतिचार रूप है। उसकी चिकित्सा प्रायश्चित से होती है। फिर प्रायश्चित के आलोचना, प्रतिक्रमण आदि दस भेद बताए हैं । काय का निक्षेप नाम आदि दस प्रकार का और उत्सर्ग का निक्षेप छह प्रकार का है। कायोत्सर्ग के प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो भेद अथवा उच्छित आदि नौ भेद हैं । इन दोनों का वर्णन करके श्रुत, सिद्ध आदि की स्तुति का वर्णन है-विवेचन है । एवं क्षामणा की विधि पर प्रकाश डाला है । छठे अध्ययन की चूर्णि में प्रत्याख्यान के भेद, श्रावक के भेद, सम्यक्त्व के अतिचार एवं पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार भिक्षाव्रत और उनके अतिचार, दस प्रकार के प्रत्याख्यान, छह प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण और आगार आदि का विविध उदाहरणों के साथ व्याख्यान किया है। हरिभद्र सूरि ने आवश्यक निर्यक्ति के आधार से आवश्यक वृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है। प्रस्तुत वृत्ति में आवश्यक चूर्णि का पदानुसरण न करके स्वतंत्र रीति से नियुक्ति गाथाओं का विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं का भी उपयोग किया गया है । प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या के प्रसंग में ध्यान का विशेष विवेचन किया है। पाँच प्रकार के ज्ञानों की व्याख्या में वैविध्य एवं प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वह व्याख्यान वैविध्य चूर्णि में दृष्टिगोचर नहीं होता । यह वृत्ति बाईस हजार श्लोक प्रमाण है। . मलधारी, हेमचंद्रसूरि ने हरिभद्रकृत आवश्यक वृत्ति पर आवश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्या नामक व्याख्या ग्रंथ लिखा है । इसे हरिभद्रीयाश्यक वृत्ति टिप्पणक भी कहते हैं। इस पर श्री हेमचंद्रसूरि के शिष्य श्री चंद्रसूरि ने एक और टिप्पण लिखा है। उसे प्रदेश व्याख्या टिप्पण कहते हैं। .. श्री माणिक्य शेखर सूरिकृत आवश्यक नियुक्ति दीपिका आवश्यक नियुक्ति का अर्थ समझाने के लिए बहुत ही उपयोगी हैं । इसमें नियुक्ति की गाथाओं का अति सरल एवं संक्षिप्त शब्दार्थ तथा भावार्थ दिया है एवं कथानकों का सार भी संक्षेप में समझा दिया है। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आवश्यक निर्यक्ति दीपिका के अतिरिक्त दशवैकालिक नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति, दीपिकाएँ एवं उत्तराध्ययन दीपिका तथा आचार दीपिका भी इन्हीं की कृतियाँ हैं। (१५७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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