SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसकी चूर्णि का नाम निशीथ विशेष चूर्णि है । उसके कर्ता श्री जिनदास गणि हैं । चूर्णि में मूलसूत्र नियुक्ति एवं भाष्य गाथाओं का विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम अरिहंतादि को नमस्कार किया है तथा निशीथ का दूसरा नाम प्रकल्प भी बताया है। पीठिका के प्रारंभ में चूलाओं का विवेचन करते हुए बताया है कि वे छह प्रकार की होती हैं । इसके बाद आचार का स्वरूप बतलाते हुए आचार, अग्र, प्रकल्प, चूलिका और निशीथ इन पाँच वस्तुओं का निर्देश करके निक्षेप पद्धति से विचार करते हुए निशीथ का अर्थ बताया है। निशीथ का अर्थ है अप्रकाश अर्थात् अंधकार । लोक में भी निशीथ का प्रयोग रात्रि, अंधकार के लिए होता है । इसी प्रकार निशीथ के कर्मपंक निषूदन आदि दूसरे भी अनेक अर्थ हैं। भावपंक का निषूदन तीन प्रकार का होता है-क्षय, अपक्षय ओर क्षयोपक्षय जिसके द्वारा अष्टविध कर्मपंक शांत-नष्ट किया जाए, वह निशीथ है। अप्रकाशित वचनों के निर्णय के लिए यह निशीथ सूत्र हैं। ___ पीठिका की समाप्ति में इस बात का विचार किया गया है कि इस पीठिका का सूत्रार्थ किसे देना चाहिए और किसे नहीं। अबहश्रुत आदि निषिद्ध पुरुषों को देने से प्रवचन घात होता है । अतः बहुश्रुत आदि सुयोग्य पुरुषों को ही इसका सूत्रार्थ देना चाहिए। इसके बाद सूत्र के बीस उद्देशों का विवेचन प्रारंभ होता है। ग्रंथ के बीस उद्देशों के वर्ण्य विषय का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। तदनुसार चूर्णिकार ने उन-उन विषयों की व्याख्या की है। विवेचन को स्पष्ट करने के लिए नियुक्ति, भाष्य गाथाओं एवं उनकी शैली का भी अनुकरण किया है । अंत में चूर्णिकार ने सांकेतिक अक्षरों के माध्यम से अपने नाम का उल्लेख किया है। निशीथ चूर्णि के बीसवें उद्देश पर श्री चंद्रसूरि ने 'निशीथ दुर्ग पद व्याख्या' नामक संस्कृत टीका लिखी है, जो चर्णि के कठिन अंशों को सरल सबोध बनाने के लिए लिखी गई है। इस व्याख्या का अधिक अंश विविध प्रकार के मासों के अंग, दिनों की गिनती. आदि से संबंधित होने के कारण नीरस है। अंत में व्याख्याकार ने अपना परिचय एवं रचना समय का निर्देश किया है। दशवैकालिक सूत्र- यह सूत्र श्रमण आचार की सारगर्भित जानकारी कराने वाला होने से इस पर अनेक व्याख्याकारों ने अपने व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं । आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) कृत दशवैकालिक नियुक्ति पहला व्याख्या ग्रंथ है। ग्रंथ के प्रारंभ में सर्वप्रथम नियुक्तिकार ने सर्व सिद्धों को नमस्कार करके दशवैकालिक नियुक्ति रचने की प्रतिज्ञा की है । अनन्तर मंगल पद के विषय में बताया है कि ग्रंथ के आदि, मध्य और अंत में विधिपूर्वक मंगल करना चाहिए । इसके अलावा मंगल के अर्थ, भेद, उपयोगिता आदि का विश्लेषण किया है। (१५२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy