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व्यवहार नियुक्ति लिखी है । व्यवहार और बृहत्कल्प ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बृहत्कल्प सूत्र में श्रमणजीवन की साधना के आवश्यक विधिविधान, दोष, अपवाद आदि का निर्देश है, वैसे ही आवश्यक सूत्र में भी इन्हीं विषयों से संबंधित उल्लेख है। यही कारण है कि मुनि आचार का वर्णन व्यवहार नियुक्ति में उपलब्ध है । अत: इसके वर्ण्य विषय का संक्षिप्त परिचय बृहत्कल्प नियुक्ति के परिचय में दिया जा रहा है। ये दोनों नियुक्तियाँ परस्पर पूरक है।
व्यवहार नियुक्ति स्वतंत्र रूप से नहीं, किन्तु भाष्य मिश्रित स्थिति में मिलती है। नियुक्ति का आधार लेकर उत्तरवर्ती काल में व्यवहार भाष्य की रचना हुई । इसके प्रणेता कौन है ? इस प्रश्न की जानकारी उपलब्ध नहीं है । भाष्य में दस उद्देशक हैं। भाष्य प्रारंभ करने की पूर्व पीठिका में भाष्यकार ने व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य का निक्षेप पद्धति से स्वरूप वर्णन किया है और कहा है कि जो स्वयं व्यवहार का ज्ञाता है, यह गीतार्थ है तथा जिसे व्यवहार का ज्ञान नहीं वह अगीतार्थ है। .
अगीतार्थ के साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये, क्योंकि उचित व्यवहार करने पर भी वह यही समझेगा कि मेरे साथ उचित व्यवहार नहीं किया.गया। अत: गीतार्थ के साथ व्यवहार करना चाहिये ।व्यवहार में दोषों की संभावना रहती है, अत: उनके परिमार्जन के लिए प्रायश्चित की आवश्यकता को ध्यान में रख कर भाष्यकार ने प्रायश्चित के अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष आदि का विवेचन किया है । यहाँ प्रायश्चित का वही अर्थ किया गया है, जो जीतकल्प में उपलब्ध है । प्रतिसेवना आदि चारों प्रकार के दोषों का स्वरूप एवं उनसे संबंधित प्रायश्चितों का अनेक प्रकार के भेद-प्रभेदों के साथ विचार किया गया है । अनेक बातों को स्पष्ट करने के लिए यथा योग्य दृष्टान्त भी दिये हैं।
पीठिका की समाप्ति के पश्चात् प्रथम उद्देश्य में प्रत्येक सूत्र के विशिष्ट शब्दों का निक्षेप पद्धति से अर्थ दिया गया है और कहा है कि अपने दोष गुरु के समक्ष प्रकट कर देने चाहिये । इससे आर्जव, विनय, निर्मलता आदि अनेक गुणों की वृद्धि होती
प्रायश्चित के विविध विधानों की ओर संकेत करते हुए यह कहा है कि कपट पूर्वक आलोचना करने वाले के लिए कठोर प्रायश्चित विधेय है । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार प्रकार के आधाकर्मादि विषयक अतिचारों के लिए भिन्न-भिन्न प्रायश्चितों का विधान किया गया है। इसी प्रकार के और दूसरे आचार संबंधी विधानों का विचार प्रथम उद्देश्य में है।
द्वितीय उद्देश्य के प्रथम सूत्र की सूत्रस्पर्शी व्याख्या में भाष्यकार ने 'द्वि',
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