SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेतुओं द्वारा पूर्व सामग्री को उन्होंने सरल, व्यापक, विस्तृत बना दिया। इस युग में व्याख्या ग्रंथों को लिखने का प्रभाव इतना बढ़ा कि प्रत्येक आगम पर कम से कम एक टीका तो अवश्य ही लिखी गई। टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, वादिवेताल शांतिसूरि, अभयदेव सूरि, मलयंगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि प्रमुख हैं । इन आचार्यों के अतिरिक्त और भी अनेक टीकाकारों के नाम हैं, जिनमें से कुछ की टीकाएँ उपलब्ध हैं और कुछ की अनुपलब्ध है। कुछ ऐसी टीका प्रतियाँ मिलती हैं, जिनमें लेखकों के नाम नहीं मिलते, लेकिन इन टीकाओं से भी पूर्व आचार्य जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण का नाम है, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति लिखना प्रारंभ किया था, लेकिन अपने जीवनकाल में यह वृत्ति पूरी न कर सकें। उस अपूर्ण वृत्ति को कोट्याचार्य ने पूर्ण किया। इस दृष्टि से आचार्य जिनभद्र को अन्य टीकाकारों से भी पूर्ववर्ती प्राचीनतम् आगमिक टीकाकार के रूप में स्मरण कर सकते हैं। . .. जिन रत्न कोष आदि में अनेक टीकाकार आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिनके व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निश्चय किया नहीं जा सकता है, क्योंकि संभवतः एक ही आचार्य के एक से अधिक नाम हो अथवा एक ही नाम के एक से अधिक आचार्य हो। ___टीकाओं के लिए भिन्न-भिन्न नामों का प्रयोग किया गया है। टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पन, टिप्पनक, पर्याय, स्तबक, पीठिका, अक्षरार्थ आदि । टीकाकारों में प्रमुख आचार्य जिनभद्र के परिचय का पूर्व में कुछ संकेत दिया जा चुका है । उनके बाद आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम आता है । हरिभद्र सूरि जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार है। उनका जन्म मेवाड़ के चित्तौड़ (चित्रकूट) नगर में हआ था । लगभग साढ़े बारह सौ वर्ष पूर्व इस नगर में जितारि नामक राजा राज करता था। हरिभद्र सूरि उसके राजपुरोहित थे। अनेक विधाओं में पारंगत होने कारण उन्हें कुछ अभिमान हो गया था। उनका यह मानना था कि संसार में ऐसा कोई विद्वान नहीं है, जो उनकी बराबरी कर सकें । उनके हाथ में हमेशा जंबू वृक्ष की शाखा रहती थी, जो इस बात का प्रतीक थी कि इस जंबूद्वीप में उनके मुकाबले का कोई विद्वान नहीं है। अभिमानवश उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी कर रखी थी कि जिसके कथन का अर्थ मैं नहीं समझ सकूँगा, उसका शिष्य बन जाऊँगा। एक दिन वे राजमहल से घर लौट रहे थे। रास्ते में जैन उपाश्रय में कुछ साध्वियाँ स्वाध्याय कर रही थीं । संयोग से उनके कानों में एक गाथा की ध्वनि पड़ी। (१२८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy