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व्याख्या की इस विधा का नामकरण भाष्य किया गया है । भाष्यों की रचना शैली भी पद्यात्मक है।
नियुक्ति और भाष्य के अनन्तर व्याख्या विधा ने एक और नया रूप लिया। नियुक्ति और भाष्य की भाषा प्राकृत एवं शैली पद्यात्मक रही। किन्तु उन दोनों में भी मूलग्रंथ का भाव जब पूर्णरूपेण स्पष्टतया व्यक्त न हो सका, तब उत्तरवर्ती काल के आचार्यों ने ग्रंथगत भाव को सर्वात्मना स्पष्ट करने के लिए गद्यात्मक व्याख्या विधा का आश्रय लिया । यह व्याख्या प्राकृत में या संस्कृत मिश्रित प्राकृत में होती थी। यह व्याख्या प्रकार पूर्ववर्ती व्याख्या विधाओं से भिन्न रूपात्मक था। अतः इसका नामकरण चूर्णि किया गया।
यद्यपि साहित्य निर्माण का आधार भाषा है, लेकिन ऐसा कोई बंधन नहीं है कि अमक भाषा में ही साहित्य की रचना की जाए। समयानुसार भाषाओं के रूप में परिवर्तन होता रहता है । अतः जब साहित्य के क्षेत्र में संस्कृत भाषा प्रमुख मानी जाने लगी, तब तत्कालीन आचार्यों ने प्राचीन आगम ग्रंथों की जो शुद्ध, परिष्कृत संस्कृत भाषा में गद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी, वे टीका के नाम से प्रसिद्ध हुई । वैदिक साहित्य तो मूलतः संस्कृत भाषा में निबद्ध हुआ। अतः उस पर लिखे गएटीका ग्रंथों में शाब्दिक स्पष्टता के अतिरिक्त भावगत विचार के लिए विशेष अवकाश नहीं है, लेकिन जैन आगमों की भाषा प्राकृत हैं, उन पर लिखी गई नियुक्तियाँ, भाष्य भी प्राकृत पद्य में है तथा चूर्णियाँ प्राकृत संस्कृत मिश्रित भाषा में है। अतः जैन टीकाकारों ने प्राचीन नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों का उपयोग करके संस्कृत भाषायी रूप निश्चित किए
और उनमें निहित भावों को प्रांजल भाषा में उपस्थित कर विद्वद् एवं सामान्य जन ग्राह्य बनाया।
. जैन आगमों पर नियुक्ति आदि उक्त सभी प्रकार के व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण हुआ है, जिसके फलस्वरूप जैन साहित्य की श्रीवृद्धि हुई । सम्मान्य ने उसकी गरिमा को परखा एवं सामान्य जन अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन की सुविधा प्राप्त कर सका और ग्रंथ की विशेषता को सरलता से समझ सका। __यद्यपि सामयिक भाषा में आगमों पर युनानुरूप नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और संस्कृत टीका ग्रंथ प्रभूत मात्रा में लिखे जा चुके थे और उनमें गद्य, पद्य आदि शैलियों का अनुसरण भी किया गया था और उनमें बहलता भी हो चुकी थी, लेकिन समयानुसार भाषा प्रवाह में परिवर्तन आने से और उत्तरवर्ती काल में लोकभाषाओं का प्रचार बढ़ने के कारण तथा संस्कृत टीकाओं में सर्वगम्यता न रहने से तत्कालीन आचार्यों ने जनहित को दृष्टि में रखते हुए लोकभाषाओं में सरल, सुबोध टीकाएँ लिखीं । इन व्याख्याओं
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