SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रज, राजस्थानी आदि रूप निश्चित होते गए, तदनुकूल उन-उन भाषाओं में भी प्रभूत मात्रा में व्याख्या साहित्य का निर्माण हुआ। आज भारतीय भाषाओं में हिन्दी का सर्वोपरि स्थान है । उसमें भी प्राचीन ग्रंथों की व्याख्याएँ लिखी गईं और लिखी जा रही हैं। उनमें अनुवाद की मुख्यता है, लेकिन साधारण पाठक के लिए अनुवाद भी महत्वपूर्ण है, अतः उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि व्याख्या का मूल उद्देश्य ग्रंथगत आशय को स्पष्ट करना है, पाठकों को ग्रंथ के हार्द को समझकर उनकी जिज्ञासा को शान्त करना है । अतः व्याख्या युगानुकूल किसी भी प्रचलित भाषा में हो सकती है, चाहे फिर वह भाषा संस्कृत हो, प्राकृत हो, हिन्दी हो, अंग्रेजी हो या अन्य कोई भी भाषा हो। * व्याख्या के प्रकारों का अभिधेय ___व्याख्या के प्रकारों में नियुक्ति का स्थान सर्वप्रथम है । नियुक्तियों के मूलग्रंथ के प्रत्येक पद का व्याख्यान न किया जाकर विशेष रूप से पारिभाषिक एवं कठिन शब्दों का व्याख्यान किया जाता है । इनकी व्याख्यान शैली निक्षेप पद्धति रूप है। इस पद्धति में किसी शब्द या पद के संभावित अनेक अर्थ करके उनमें से अप्रस्तुतार्थ का निराकरण और प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है । व्याख्यात्मक साहित्य लिखने की प्राचीन परंपरा में इस विधा का अधिक उपयोग देखने में आता है। जैसे कि वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि भारक ने निघंटु भाष्य रूप निरूक्त लिखा। जैन न्याय शास्त्र में भी इस पद्धति का विशेष महत्व है और निर्यक्तिकार भद्रबाहस्वामी ने नियुक्ति का प्रयोजन बताते हुए इस पद्धति को सर्वाधिक उपयुक्त बताया है। उन्होंने आवश्यक नियुक्ति गाथा में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक शब्द अनेकार्थक होता है। उसमें भी यथाप्रसंग कौन सा अर्थ उपयुक्त है और भगवान महावीर के उपदेश के समय कौन सा अर्थ किस शब्द से संबंधित रहा आदि बातों पर दृष्टि रखते हुए सम्यक रूप से अर्थ निर्णय करना और उसका मूलसूत्र के शब्दों के साथ संबंध जोड़ना नियुक्ति का प्रयोजन है । नियुक्ति की रचना शैली पद्यात्मक है। नियुक्तियों की रचना, व्याख्यान शैली, गूढ़ और संकोचशील है, जिससे किसी विषय का जितने विस्तार से विचार होना चाहिए, उसका उनमें अभाव है। उनकी अनेक बातें बिना आगे की व्याख्याओं के समझ में नहीं आती। अतः इन नियुक्तिगत गूढार्थों को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए उत्तरवर्ती काल में जो पद्यात्मक विस्तृत व्याख्याएँ की गई, वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हुईं । भाष्यों में नियुक्तियों के गूढ़ अर्थ की अभिव्यक्ति के साथ-साथ यत्किचित् मूल ग्रंथगत भावों को प्रकट किया जाता है। (११८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy