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७. भक्त परिज्ञा- इसमें एक सौ बहत्तर गाथाएँ हैं। इस प्रकीर्णक में भक्त परिज्ञा नामक मरण का विवेचन है । ग्रंथकार ने, अभ्युद्यत मरण से आराधना सफल होती है, यह बताते हुए अभ्युद्यत मरण के तीन भेद किए हैं-भक्त परिज्ञा, इंगिनी पादोपगमनं । भक्त परिज्ञा मरण दो प्रकार का है-सविचार और अविचार । भक्त परिज्ञा मरण के विवेचन में आचार्य ने बताया है कि दर्शन भ्रष्ट, श्रद्धा भ्रष्ट को मुक्ति प्राप्त नहीं होती । वह उसकी प्राप्ति का अधिकारी नहीं है।
८. तंदुल वैचारिक- इसमें एक सौ उनतालीस गाथाएँ हैं । बीच-बीच में कुछ सूत्र भी हैं। इसमें विस्तार से गर्भ विषयक विचार किया गया है । सौ वर्ष की आयु वाला पुरुष कितना तंदुल, चावल खाता है ? इसका संख्या पूर्वक विशेष विचार करने के कारण उपलक्षण से इसको तंदुल वैचारिक कहा जाता है । गर्भ से उत्पन्न प्राणी की निम्नलिखित दस अवस्थाएँ होती हैं
१. बाला, २. क्रीडा, ३. मंदा, ४. बला, ५. प्रज्ञा, ६. दायनी, ७. प्रपंचा, ८. प्रारभारा, ९. मुन्मुखी और १०. शायिनी । प्रत्येक अवस्था दस वर्ष की होती है । ग्रंथकार ने इन दस अवस्थाओं का वर्णन किया है । युगलधर्मियों के अंग प्रत्यंगों का साहित्यिक भाषा में वर्णन करते हुए संहनन व संस्थान का विवेचन किया है । सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य अपने जीवनकाल में साढ़े बाईस वाह तंदुल, साढ़े पाँच घड़े मूंग, चौबीस सौ आढक स्नेह याने घी तेल और छत्तीस हजार पल नमक खाता है । अन्त में बताया है कि हमारा यह शरीर जन्म, जरा, मरण एवं वेदनाओं से भरा हुआ एक प्रकार का शकट (गाड़ी) है । इसे पाकर ऐसा कार्य करो जिससे समस्त दुःखों से मुक्ति मिले।
९. संस्तारक- इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य संस्तारक याने तृण आदि की शैया का महत्व वर्णित है । संस्तारक पर आसीन होकर पण्डित मरण प्राप्त करने वाला मुनि मुक्ति का वरण करता है । इस प्रकार के अनेक मुनियों के दृष्टान्त प्रस्तुत प्रकीर्णक में दिए गए हैं। इसमें एक सौ तेईस गाथाएँ हैं।
__१०: गच्छाचार- इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले साधु-साध्वियों के आचार का वर्णन है । जिस गच्छ में दान, शील, तप और भावना इन चार प्रकार के धर्मों का आचरण करने वाले गीतार्थ मनि अधिक हो, वह सुगच्छ है और ऐसे गच्छ में रहने से महा निर्जरा होती है एवं सारणा, वारणा, प्रेरणा आदि से नए दोषों की उत्पत्ति रुक सकती है । साध्वियों को किस प्रकार शयन करना चाहिए? इसका विचार करते .
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