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________________ वर्तमान में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक और पिंडनिर्यक्ति ये चार मूलसूत्र के रूप में हैं। इनमें से प्रथम तीन तो सर्वमान्य हैं और पिंडनियुक्ति को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा मूलसूत्र के रूप में मानती हैं। सर्वमान्य मूलसूत्रों का परिचय यहाँ प्रस्तुत करने के बाद पिंडनियुक्ति का परिचय यथायोग्य स्थान पर दिया जा रहा है। १. उत्तराध्ययन- यह जैन आगमों का पहला मूलसूत्र है। प्रो. लायमन के अनुसार यह सूत्र उत्तर-बाद का होने से अर्थात् अंग ग्रंथों की अपेक्षा से उत्तर काल में रचित होने से उत्तराध्ययन कहलाता है, लेकिन टीका ग्रंथों में इसके नामकरण के बारे में बताया है कि भगवान महावीर ने अपने अंतिम चातुर्मास में अपुट्ठ वागरणा-बिना पूछे जिन छत्तीस प्रश्नों के उत्तर दिए थे, उनका इस ग्रंथ में संकलन होने से इसका नामकरण उत्तराध्ययन किया गया है । जनसाधारण में इसका नाम छत्तीसा भी प्रचलित है और पर्युषण पर्व में इसका वाचन किया जाता है। उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार इसके छत्तीस अध्ययनों में से कुछ अंग आगमों में से लिए गए हैं, कुछ जिन भाषित है और कुछ संवाद रूप हैं । वादिवेताल शांतिसूरि के अनुसार परीसह' नामक दूसरा अध्ययन दृष्टिवाद से लिया गया है, द्रुम पुष्पिका नामक दसवाँ अध्ययन भगवान महावीर ने फ्ररूपित किया है तथा केशी गौतमीय नामक तेईसवाँ अध्ययन संवाद रूप में प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार ग्रंथ के विषयों के लिए किन्हीं भी सूत्रों को आधार माना जाए, लेकिन इस बात के लिए सभी एकमत है कि उत्तराध्ययन में जैन आचार विचारों का प्रभावक रूप में विवेचन किया गया है । भाषा और विषय की दृष्टि से इसके प्राचीन होने की चर्चा अनेक विद्वानों ने की है । इस ग्रंथ के अनेक स्थलों की तुलना बौद्धों के सुत्तनिपात, जातक और धम्म पद आदि प्रमुख ग्रंथों से की जा सकती है। जैसे के राजा नमि को बौद्ध ग्रंथों में प्रत्येक बुद्ध मानकर उनकी कठोर तपश्चर्या का वर्णन किया गया है । चित्तसंभूत कथा की तुलना चित्तसंभूत जातक की कथा से, हरिकेश मुनि की कथा की मातंग जातक की कथा से और इषुकार की कथा की तुलना हत्थिपाल जातक में वर्णित कथा से की जा सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित चार प्रत्येक बुद्धों की कथा कुंभकार जातक में कही गई है। मृगापत्र की कथा भी बौद्ध साहित्य में आती है । इस ग्रंथ में अनेक सुभाषित और संवाद ऐसे हैं, जिन्हें पढ़ने से प्राचीन बौद्ध सूत्रों का स्मरण हो जाता है। ग्रंथ के महत्व को देखते हुए पूर्वकाल में तो विद्वान आचार्यों ने इसके आशय को स्पष्ट करने के लिए टीकाएँ लिखी हैं, लेकिन वर्तमान में भी यह क्रम चालू है। (१०२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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