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हो सकता है कि भगवान महावीर कृत आचार विधानों में ब्रह्मचर्य अर्थात् त्रिविध स्त्री (देव, मनुष्य, तिर्यंच) संसर्ग त्याग प्रधान है। परंपरा से चले आए चार यामोंचार महाव्रतों में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अलग से जोड़ा। इससे पता चलता है कि भगवान महावीर के समय में एतद् विषयक कितनी शिथिलता रही होगी। इसी प्रकार के उग्र शैथिल्य एवं आचार पतन के युग में कोई विघ्न संतोषी इस अध्ययन को लोप में कदाचित निमित्त बना हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस अध्ययन में सात उद्देशक थे।
आठवें अध्ययन के दो नाम है- विमोक्ष और विमोह । विमोक्ष का अर्थ है-अलग हो जाना, साथ में न रहना और विमोह का अर्थ है-मोह न रखना, संसर्ग न रखना । इस अध्ययन के आठ उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में जिन अनगारों का आचार अपने आचार से न मिलता दिखाई दे; उनके संसर्ग से मुक्त रहने, उनके साथ न रहने, मोह न रखने का, दूसरे में दूषित आहार-पानी, वस्त्र आदि त्यागने-मोह न रखने का, तीसरे में शरीर कंप होने पर, किसी के द्वारा आवेश से कंपित होने की आशंका होने पर या शरीर कंप किया जाने पर उसकी शंका को दूर करने, उसे शंका से मुक्त करने का, चौथे में परिवर्तन स्थिति या कारण विशेष होने पर मुनि को मरने का विचार नहीं करने का- संयम पालन में तत्पर रहने का, पाँचवे में रोग ग्रस्त होने पर मुनि को भक्तपरिज्ञा पूर्वक शरीर त्यागने का, छठे में धैर्य वाले मुनि को इंगित मरण करने का, सातवें में उसे पादोपगमन करने का एवं आठवें में कालपर्याय में से तीनों मरणों की विधियों का वर्णन किया गया है । सारांश यह है कि इस अध्ययन में बताया गया है कि श्रमण धर्म को विकृत बनाने के कारणभूत असाधु, दूषित आहार-पानी, मानसिक-वाचिक-कायिक कुचेष्टाओं आदि को त्यागने-संसर्ग न रखने के साथ साथ उपकरण, शरीर के विमोक्ष विमोह एवं यदि ऐसी शारीरिक परिस्थिति उपस्थित हो जाये कि अब संयम की सुरक्षा संभव नहीं है या अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों के कारण संयम भंग होने की स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो जीवन का मोह छोड़ने में तत्पर रहना चाहिए।
उपधान श्रुत नौवाँ अध्ययन है । इसके चार उद्देशक हैं। उनमें श्रमणचर्या की अंगभूत तपशुद्धि, भिक्षाशुद्धि आदि शुद्धियों का भगवान महावीर की साधना के रूपक द्वारा विवेचन किया गया है। प्रथम उद्देशक में दीक्षा लेने के बाद भगवान ने जो कुछ भी सहन किया, उसका वर्णन है। दूसरे और तीसरे उद्देशक में भगवान ने कैसे-कैसे स्थानों पर निवास किया और कैसे-कैसे परीषह सहन किए, यह बताया है। चतुर्थ उद्देशक में बताया है कि भगवान ने किस प्रकार तपश्चर्या की, भिक्षाचर्या में कैसा क्या
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