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________________ विधि पूर्वक न प्रवर्तावे या विधि ही न जानें ।। ३७९।। सच्छंदगमण - उट्ठाण - सोअणो, अप्पणेण चरणेण । समंणगुणमुक्कजोगी, बहुजीवखयंकरो भमड़ ||३८०॥ ( गुर्वाज्ञा बिना) स्वेच्छा से गमन, (आसन से ) उठे, शयन करें (स्वेच्छारी है इसीलिए ही) स्वबुद्धि से स्वयं के माने हुए आचरण से विचरें, श्रमणपने के ज्ञानादि गुणों में प्रवृत्ति रहित हो अतः अनेक जीवों का घात करते हुए विचरण करता रहें ।। ३८० ।। यत्थि व्य वायपुण्णो, परिभमइ जिणमयं अयाणंतो । थद्धो निव्विन्नाणो, न य पिच्छड़ किंचि अप्पसमं॥३८१ ॥ (मदरोग के औषधसम) सर्वज्ञ वचन से अज्ञ, वायु से भरी हुई मशक के समान गर्व युक्त फिरता रहे, 'थद्धो' = शरीर में गर्व का चिह्नवाला अक्कड होकर ज्ञान हीन होते हुए भी किसी को भी महान न देखें (दूसरों को हीन समझे, ज्ञानी की गर्व नहीं होता, अज्ञानी को ही गर्व होता है) ।। ३८१ ।। सच्छंदगमणउट्ठाण - सोअणो, भुंजड़ गिहीणं च । पासत्थाईठाणा, हवंति एमाइया एए ॥ ३८२॥ स्वच्छंद गमन-उत्थान-शयनवाला (यह पुनःकहकर यह सूचन किया कि सभी गुण गुणी के प्रति परतंत्रता के स्वीकार से साध्य है, परतंत्रता रहित • क्या करता है वह कहते हैं -) गृहस्थों के बीच में बैठकर आहार पानी करे . ( या 'यहाँ पर मोह परतंत्रता के दुष्ट आचरण कितने कहे जाय ? ) पासत्था कुशील आदि के ऐसे-ऐसे दोष स्थान होते हैं। (इस पर से विषय-विभाग से अज्ञ यह न समझे कि तो उद्यत विहारी (शुद्ध आचारवान् भी बिमारी आदि .में. दोषित सेवन करे तो वह भी पासत्थादि होता है इसीलिए स्पष्टीकरण करते हैं) ।। ३८२ ।। · जो हुज्ज उ असमत्थो, रोगेण व पिल्लिओ झुरियदेहो । सव्यमवि जहाभणियं, तयाइ न तरिज्ज काउं जे ॥ ३८३ ॥ जो असमर्थ - शास्त्रोक्त क्रिया में अशक्त हो या क्षय आदि रोग से पीड़ित हो, जर्जरित देह हो, वह शास्त्र में कहे अनुसार सभी क्रिया उसी अनुसार न कर सके। गाथा में अंतिम 'जे' पद वाक्यालंकार के लिए है ।। ३८३ ।। 79 सोऽवि य निययपरक्कम - यवसायधिईबलं अगूहंतो । मुत्तुण कूडचरिअं जई जयई तो अवस्स जई ॥३८४॥ श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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