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स्थान से (जघन्य एक हाथ पास में इसके उपरांत मध्य की) और बाहर की (सो हाथ दूर तक भूमि में) सह्य शंका और असह्य शंका मात्रादि के लिए स्थंडिल के लिए बारह-बारह भूमियों का (मांडले की) और काल. ग्रहण की तीन भूमियों का पडिलेहन न करें ।।३७५।।
गीअत्थं संविग्गं, आयरिअं मुअइ चलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचि [वि] देइ गिण्हइ या॥३७६॥
गीतार्थ आगमज्ञ को, संविग्न-मोक्षाभिलाषी उद्यत विहारी ऐसे आचार्य स्वयं के गुरु को (बिना कारण) छोड़ दे (अगीतार्थ-असंविज्ञ को आगमोक्त क्रम से छोडे इसमें दोष नहीं) कभी-कभी प्रेरणा देने वाले 'गच्छस्स' =गुरुके 'वलइ' =उत्तर देने के लिए सामने बोले, गुरु को पूछे बिना (किसी को) कोई (वस्त्रादि) दे अथवा किसी के पास से ले ।।३७६।। . . . .
गुरुपरिभोगं भुंजइ, सिज्जा-संथार-उवगरणजायं । .: किं ति तुमं ति भासइ, अविणीओ गविओ लुद्धो॥३७७॥
गुरु जो उपयोग में लेते हैं वह 'शय्या' शयन भूमि शिष्य वापरें, संथार=पाट पाटला आदि वापरें और (वर्षाकल्प खास कंबलादि) उपकरणों को स्वयं वापरे, (गुरु संबंधी उपधी भोग्य नहीं परंतु वंदनीय है) (गुरु बोलावे तब) क्या है? ऐसा कहे. (मत्थरण वंदामि ऐसा कहना चाहिए) और गुरु के साथ बात करते समय तुम-तुम कहे (आप-आप ऐसा मानसूचक वचन कहना चाहिए ऐसे वचन कहे तो शिष्य विनीत कहा जाता है) तो वह अविनीत, गर्विष्ठ और लुद्ध-विषयादि में गृद्ध है ।।३७७।।
गुरुपच्चक्वाणगिलाण-सेहबालाउलस्स गच्छस्स । न करेइ नेव पुच्छइ, निद्धम्मो लिंगमुवजीवी ॥३७८॥
(कर्तव्य तजे) गुरु अनशनी, ग्लान, शैक्षक (नूतन दीक्षित) और बाल मुनियों से युक्त गच्छ में प्रत्येक का (करने योग्य सेवा कार्य) वह न करें (अरे!) पूछे भी नहीं कि (महानुभाव! मेरे योग्य सेवा?) 'निद्धम्मो' -आचार न पाले, मात्र वेष पर पेट भरने वाला हो ।।३७८।।
पहगमण-वसहि-आहार-सुयण-थंडिल्लविहिपरिट्ठवणं । नायरइ नेव जाणड़, अज्जावट्टावणं चेव ॥३७९॥
मार्ग में गमन, स्थान, आहार, शयन स्थंडिल भूमि की विधि, अधिक-अशुद्ध आहारादि की परिष्ठापन की विधि को जानते हुए भी निधर्मी होने से आचरण में न ले या जाने ही नहीं. और साध्वीयों को संयम रक्षार्थे श्री उपदेशमाला
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