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रजोहरण न रखकर भी अपने को मुनि रूप में पूजावें ।।२६९।। .. अट्ठम छ? चउत्थं, संवच्छर चाउमास पक्खेसु ।
न करेइ सायबहुलो, न य विहरइ मासकप्पेणं ॥३७०॥ • सुखशीलता के कारण प्रति सांवत्सरिक, चउमासी, एवं पाक्षिक तप अट्ठम, छट्ठ एवं उपवास न करे और (उस समय विहित होने पर भी) मास कल्प (आदि नवकल्पी) विहार से न विचरें ।।३७०।।
नीयं गिण्हइ पिंडं, एगागी अच्छए गिहत्थकहो । पावसुआणि अहिज्जड़, अहिगारो लोगगहणंमि ॥३७१॥
नीयं-सदा एक घर का आहार ले, एकाकी रहे, गृहस्थों से बातें करता रहे, खगोल, ज्योतिष, ग्रहचार आदि पापशास्त्र सीखे, और लोकरंजन के आकर्षण में 'अधिकार' =संतोष माने (परंतु स्व अनुष्ठानों में नहीं) ।।३७१।।
परिभवइ उग्गकारी, सुद्धं मग्गं निगृहए बालो । विहरइ सायागरुओ, संजमविगलेसु खित्तेसु ॥३७२॥
उग्रविहारी (अप्रमादी) साधुओं का पराभव (अवगणना-निंदा) करे, 'बाल' =मंदबुद्धिवाला वह (ज्ञान-दर्शन चारित्र रूपी शुद्ध मार्ग को छुपावे, शातागारव युक्त बनकर (उत्तम साधुओं से अभावित) संयम प्रतिकूल क्षेत्रों में सुखशीलता का पोषण हो उस उद्देश से विचरे ।।३७२।। ... उग्गाइ गाइ हसइ असंवुडो, सइ करेइ कंदप्पं ।
गिहिकज्जचिंतगोऽवि य, ओसन्ने देइ गिण्हइ ॥३७३॥
ऊँच स्वर से संगीत करे, सामान्य संगीत करें, खुल्ले मुख से (खड़खड़ाहट) हसे, (हास्योद्दीपक वचन बोलकर) सदा कंदर्प (हास्य मजाक) करें, गृहस्थ के कार्यों की चिंता करें और ओसन्न को (शिथिलाचारी को)
वस्त्रादि की आप-ले करें ।।३७३।। .. धम्मकहाओ अहिज्जइ, घराघरं भमइ परिकहतो अ ।
गणणाइ पमाणेण य, अइरितं वहइ उवगरणं ॥३७४॥
(आजीविका के लिए) धर्मकथा (शास्त्रों) का अध्ययन करें, गृहस्थ के घरों में धर्मोपदेश देने हेतु घूमें, और संख्या से और प्रमाण से अधिक उपकरण रक्खें ।।३७४।।
बारस बारस तिण्णि य, काइय-उच्चार-कालभूमीओ । अंतोबहिं च अहियासि, अणहियासे न पडिलेहे ॥३७५॥
श्री उपदेशमाला
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