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वह भी (ऐसा दूसरा कोई द्रव्य-क्षेत्र-काल से आपत्ति ग्रस्त हो वह भी) स्वयं के पराक्रम-संघयण के वीर्य से शक्य व्यवसाय-बाह्य प्रवृत्ति और धैर्य-(मनोवीर्य) की शक्ति (स्वकार्य प्रवृत्ति-सामर्थ्य) को छूपावे नहीं और उसमें माया का त्यागकर प्रामाणिक प्रयत्न करें वह नियमा (जिनाज्ञा को वफादार होने से) सुसाधु ही हैं ।।३८४।।
अलसो सढोऽवलितो, आलंबणतप्परो अइपमाई । एवं ठिओऽवि मन्नइ, अप्पाणं सुट्ठिओम्हि ति ॥३८५॥
(मायावी कैसा होता है तो कहा कि-) प्रमादी, शठ-ठग विद्या करने वाला, 'अवलिप्त' =गर्विष्ठ, 'आलंबन' =कुछ भी बहाना बनाकर सभी कार्यों में अधम स्वार्थ पूर्वक प्रवर्ती करें, गाढ़ निद्रादि अतिप्रमाद करें, ऐसी दुर्दशायुक्त होने पर भी स्वयं की जात को 'मैं सुस्थित'-(गुणवान् साधु) हूँ. ऐसा मानें। (दूसरों को अपनी माया से अपनी गुणियलता बतावें) ।।३८५।।
जोऽवि य पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं । .. तिग्गाममज्झवासी, सो सोयइ कवडखवगु ब्व ॥३८६॥
(मायावी को नुकशान में) (लोक रंजन करने वाला) जो कोई मुग्ध को (भद्रक आत्मा को) माया पूर्वक मृषा वचनों से स्वयं के वश में लाकर खाइ-ठगता है वह तीन गाम के बीच में रहनेवाले ब्राह्मण मायावी, खमणी, संन्यासी समान अंत में शोक करता रहता है ।।३८६।।
एगागी पासत्थो, सच्छंदो ठाणवासी. ओसन्नो । दुग्गमाई संजोगा, जह बहुआ तह गुरू हुंति ॥३८७॥
अकेला (साधर्मिक साधु रहित) पासत्थो, स्वच्छंद (आज्ञा रहित) (सदा स्थिरवासी) अवसन्न (आवश्यकादि में शिथिल ये पाँच घद है इनके (एकेक पद के पाँच भांगे होते हैं) द्विक आदि संजोग (होकर १० भांगे) इसमें जैसे-जैसे पद मिले, वैसे-वैसे अधिक दुष्ट भांगे होते हैं। (तात्पर्य यह है कि कोई एकाकी का दोष सेवन करता है या पासत्था का ही दोष सेवन करता हो ऐसे पाँच भांगे। दो-दो संयोगवाले १० भांगे अकाकी भी पासत्था भी, एकाकी स्वच्छंद इस प्रकार समझना वैसे ही तीन संयोगी १० भांगे, चार संयोगी ५ भांगे और पाँच संयोगी १ भांगा पाँच संयोगी साधु अधिक दुष्ट) ।।३८७।।
गच्छगओ अणुओगी, गुरुसेवी अनियओ गुणाउत्तो । ' संजोएण पयाणं, संजमआराहगा भणिया ॥३८८॥
श्री उपदेशमाला
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