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अभिगमणवंदणनमंसणेण, पडिपुच्छणेण साहूणं ।
चिरसंचियं पि कम्म, खणेण विरलत्तणमुवेइ ॥१६६॥ . आने वाले साधु के सामने जाने से, वंदन-गुण स्तुति करने से, नमस्कार-मन-काया से नमन करने से, शरीर की कुशलता पूछने से, अनेक जन्मों के अर्जित कर्म अल्प समय में कम हो जाते हैं ।।१६६।।
केइ सुसीला सुहम्माइ, सज्जणा गुरुजणस्स वि सुसीसा। विउलं जणंति सद्धं, जह सीसो चंडरुद्दस्स ॥१६७॥
कितनेक सुशील, (इंद्रिय और मन की विशिष्ट समाधि युक्त) सुधर्मी, (ज्ञान-चारित्र रूपी धर्म युक्त) और अति संतजन (सभी को अमृत रूप होने से सज्जन) सुशिष्य गुरु जन को भी विशेष श्रद्धा उत्पन्न करवाने वाले होते हैं। जैसे चंडरुद्राचार्य का नूतन शिष्य ।।१६७।।
अंगारजीयवहगो, कोइ कुगुरू सुसीसपरिवारो । सुमिणे जईहिं दिट्ठो, कोलो गयकलहपरिकिन्नो ॥१६८॥
कोयले की कंकरी को जीव मानकर हिंसा करने वाले कोई कुगुरु अंगारमर्दकाचार्य. सुशिष्यों से युक्त दूसरे आचार्य के मुनियों को स्वप्न में एक डुक्कर को गज कलभो से सेवित देखा। (इस पर से आचार्य के कहने से वह पहचाना गया) ।।१६८।। . ..., सो उग्गभवसमुद्दे, ‘सयंवरमुवागएहिं राएहिं ।
कहो वक्रवरंभरिओ, दिह्रो पोराणसीसेहिं ॥१६९॥ - वह (अंगारमर्दकाचार्य) रौद्र संसार सागर में (भ्रमण करते) ऊँट बना। वह अधिक सामान पीठ पर लिये हुए पूर्व भव के शिष्य जो राजा बने थे और स्वयंवर में आये हुए उनके द्वारा देखा गया। (आचार्य बन जाने पर भी संक्लिष्ट परिणाम युक्त कैसे? कारण था वह भवाभिनंदी (अभवी) आत्मा थाः ।।१६९।।
संसारवंचणा न वि, गणंति संसारसूअरा जीवा । . सुमिणगएण वि केई, बुज्झंती पुप्फचूला व्व ॥१७०॥
संसार के (विषय-विष्ठा-गृद्ध) मूंड जैसे जीव संसार (इस भव) से (नरकादि स्थान प्रासि द्वारा) ठगे जाते है तब कितनेक स्वप्न में देखे हुए (नरकादि) से भी प्रतिबोधित (संसार से विरक्त) हो जाते हैं। जैसे (राणी) पुष्पचूला। (लघुकर्मी जीव जागृत दशा में गुरु उपदेश से प्रतिबोधित हो उसमें पूछना ही क्या?) ।।१७०।।
श्री उपदेशमाला
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