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________________ जो अविकलं तवं संजमं च, साहू करिज्ज पच्छा वि । अन्नियसुओ व्य सो नियगमट्टमचिरेण साहेड़ ॥ १७१ ॥ जो साधु अखंडित तप और संयम (छर्जीबनकाय रक्षा) की आराधना करता है। वह अंत समय में भी अर्णिका पुत्र आचार्य के समान अपने प्रयोजन को शीघ्र साधते हैं ।। १७१ । । सुहिओ न चयइ भोए, चयइ जहा दुक्खाओ ति अलियमिणं । चिक्कणकम्मोलित्तो, न इमो न इमो परिच्चय ॥ १७२ ॥ 'सुखी जीव भोग सुख नहीं छोड़ते, जैसे दुःखी जीव छोड़ देते हैं" ऐसा कहना यह असत्य वचन है (क्योंकि) निकाचित कर्मों से लिप्त सुखी हो या दुःखी जीव भोगों को नहीं छोड़ सकता । ( भोग त्याग में तो लघुकर्मीपना ही कारण है ( सुख दुःख नहीं ) ।। १७२ ।। जह चयड़ चक्कवट्टी, पवित्थरं तत्तियं मुहुत्तेण । न चयइ तहा अहन्नो, दुब्बुद्धी खप्परं दमओ ॥१७३॥ ( दृष्टांत में ) जैसे महासुखी चक्रवर्ती छ खंड पृथ्वी का विस्तार क्षणमात्र में छोड़ देता है परंतु भिक्षुक भीक्षां मांगने का ठीकरा भी नहीं छोड़ सकता ||१७३ ।। देहो पिवीलियाहिं, चिलाइपुत्तस्स चालणी व्य कओ । तणुओ वि मणपओसो, न चालिओ तेण ताणुवरिं ॥१७४॥ [कर्म हल्के हो जाने पर तो जीव संयम रक्षार्थे शरीर को भी छोड़ देते हैं जैसे ] चिलाती पुत्र के शरीर को चींटीयों ने चालणी जैसा बना देने पर भी उस महात्मा ने मन में भी उन चींटीयों पर द्वेष-अभाव आने न दिया ।।१७४।। पाणच्चए वि पावं, पिवीलियाए वि जे न इच्छति । ते कह जई अपावा, पावाई करेंति अन्नस्स ? ॥१७५॥ जो प्राणांत के समय भी चींटी जैसे जीव प्रति भी द्वेष की इच्छा नहीं करते वे निष्पाप (सावद्यत्यागी) मुनि भगवंत दूसरे के प्रति अपराध कैसे करेंगे? ।।१७५।। जिणपह अपंडियाणं, पाणहराणं पि पहरमाणाणं । न करंति य पावाई, पायस्स फलं वियाणंता ॥१७६॥ [निरपराधी को न दंडे पर अपराधी को कैसे सहन करे ? तब कहा श्री उपदेशमाला 36
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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