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________________ ।।१६०।। __ सव्वजिणप्पडिकुटुं, अणवत्था थेरकप्पभेओ अ । इक्को अ सुआउत्तोयि, हणइ तवसंजमं अइरा ॥१६१॥ (बड़ी बात यह भी है कि) सभी जिनेश्वर भगवंतों ने साधु को एकाकी विहार का निषेध किया है, क्योंकि इससे (जीव प्रमाद से भरे हुए होने से) दूसरों में भी एकाकी विहार की परंपरा चलती है। इससे स्थविर कल्प (गच्छवासिता) छिन्न-भिन्न हो जाता है और अच्छा अप्रमत्त साधु भी एकाकी होकर तप प्रधान संयम का नाश करेगा ।।१६१।। वेसं जुण्णकुमारिं, पउत्थवइअं च बालविहवं च । ... पासंडरोहमसइं, नवतरुणिं थेरभज्जं च ॥१६२॥.. वेश्या, प्रौढ कुमारी, पति परदेश हो वैसी, बालविधवा, जोगणी, कुलटा, नवयौवना, युवा पत्नी ।।१६२।। . . सविडंकुब्भडरूया, दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी। ... आयहियं चिंतंता, दूरयरेणं परिहरंति ॥१६३॥ शुभ अध्यवसाय से गिरा दे ऐसी उद्भटरूप और वेष धारी और दिखाई देने मात्र से मोहोत्पादक, इसमें से कोई भी स्त्री को आत्महित चाहक साधु दूर से तजता है। (जहाँ उसकी संभावना हो वहाँ से भी दूर रहते हैं . कारण कि स्त्री से होने वाले अनर्थ सभी विषयराग का कारण होने से अती दीर्घ संसार भ्रमण का सर्जन होता है ।।१६३।। सम्मट्ठिी वि कयागमो वि, अघिसयरागसुहवसओ । भवसंक्डंमि पविसड़, इत्थं तुह सच्चई नायं ॥१६४॥ 'तत्त्वार्थ' =श्रद्धावान् भी, आगमज्ञ (गीतार्थ) भी शब्दादि विषयों के अतीव राग के वश हो जाय तो क्लेश मय संसार में गिरता है (हे शिष्य!) इस विषय में तुझे 'सत्यकी' विद्याधर का उदाहरण समझना (साधु होकर विषयासक्त बने तो अत्यंत अशुभ कर्मोपार्जन करता है) ।।१६४।। सुतवस्सिया ण पूया-पणामसक्कारविणयकज्जपरो । बद्धं पि कम्ममसुहं, सिढिलेड़ दसारनेया व ॥१६५॥ (गृहस्थ भी साधु की उपासना करते हुए कैसे लाभ प्राप्त करता है तो कहा कि) उत्तम साधुओं को वस्त्रादि से पूजा, वंदन, प्रणाम, स्तुति रूप सत्कार, विनय, इन कार्यों के करने में तत्पर (गृहस्थ भी) कृष्ण के समान बंधे हुए अशुभ कर्मों को शिथिल करता है ।।१६५।। । श्री उपदेशमाला 34
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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