SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 73 प्रभूवीर एवं उपसर्ग छहमास पर्यन्त जो चलायमान नहीं हुआ उसे कैसे विचलित किया जायेगा।मेरा अब तक का प्रयत्न निरर्थक गया।मैं छह मास तक देवलोक के सुख से वंचित रहा। निरर्थक बिडंबना पाया। यह सब शोचता वह भगवान के चरणों में गिर पड़ा। वह कहने लगा कि आप प्रतिज्ञा के पारगामी है। मैं हार गया हूँ। इन्द्र महाराज ने जो कहा वह सत्य था। मैंने उस बात पर श्रद्धा नहीं की यह मेरी गलती हुई । इन सभी पश्चाताप का कोई भाव नहीं है । अब उसे डर है इन्द्रमहाराज क। अब प्रभु को यह कहना है आप जाये गोचरी हेतु मैं उपसर्ग नहीं करूंगा। प्रभु इसके बाद कहते हैं कि हे संगम। मेरी चिन्ता मत करो।मैं प्रसंगवशात् जोयोग्य होता है उसे स्वयं करताहं। आप लोग जानते हैं न महानुभावो! संगम जब वापस लौटा तब प्रभु ने शोचा।मेरे जैसा जगदुद्धारक को पाकर भी यह भटकता रहा। उसकी दया के भाव से प्रभु की आँखों से अश्रुबिन्दु छलक पड़े।प्रभु की संगम पर कैसी दया ? अपराधकरनेवाले पर भी प्रभु की दृष्टिदया से भरी हुई थी। अब संगम देवलोक में पहुंचता है तब इन्द्र महाराज देव-देवियों के साथ में उद्विग्न थे । उसे आते देख इन्द्र ने मुँह घूमा लिया। देवताओं से कहा कि यह सुराधम अपना अपराधी है। इसका मुँह देखने जैसा नहीं है। इसने हमारे स्वामी की कदर्थना की है। उसे भवभ्रमण का भय नहीं था, लेकिन मुझसे भी वह भय नहीं पाया । इसकी संगति से हमलोग भी पापी होंगे अतः इसे देवलोक से निकाल डालो।फिर देव-देवियों के उपहास के साथ वहपागल कुत्ते की भांति देवलोक से निकाल दिया गया । वह बाकी एक सागरोपम प्रमाण आयुष्य मेरुचूला पर पूर्ण करनेवाला है। बाद में इन्द्र ने इनकी देवांगनाओं को जाने की अनुमति दी। देहातीत अवस्था - संगमदेव अभव्य था।वह कभी भी सुधरनेवाला नहीं था, नहीं तो उसे सुधरने का अवसर इन्द्र महाराज देते भी तो।उसका अपराधअक्षम्य था।इससे इन्द्र महाराज ने उसे देवलोक से निकाल दिया। देवलोक में उसे अब स्थान नहीं था।देव जैसे देवकी भी यहदशा होती है। ... हमलोग प्रभु महावीर और उपसर्गों की बात जो शुरु किये थे उसमें मुख्यतया संगम द्वारा किये गये एक रात के उपसर्ग की बात करने का निश्चय
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy