SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्र की स्तवना-संगम का कोप प्रभु विहार करते-करते बहु म्लेच्छों से भरी दृढभूमि में पधारे हैं । वहाँ पेढाल गांव के बाहर पेढाल-उद्यान के चैत्य में बिना जलवाला अट्ठम नामक तपपूर्वक एकतान चित्त में अचित्त एक पुद्गल - पर स्थापित दृष्टिपूर्वक एकरात्रिक महाप्रतिमा का प्रारंभ करते हैं। इस अन्तराल में निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक परमात्म भक्त देवराज श्रीइन्द्रमहाराज, सौधर्म देवलोक की देवपर्षदा में रहे रहे प्रतिमाधारी प्रभु को देखकर भावपूर्वक प्रणाम करते है और प्रभु के सद्भूत ऐसे सद्भुत गुणों की स्तवना करते हुए कहते हैं कि 'हे ... देवों.... ये भगवान महावीर समित्तिगुप्ति-निष्कषायभाव-आश्रय के ममत्व आदि से रहित हैं, प्रभु को कहीं भी प्रतिबंध लगाव नहीं है, अपने धैर्य से वे तीन लोक के जनसमूह के विजेता है, देवेन्द्र, देव, यक्ष, राक्षस या विद्याधर आदि अत्यन्त समर्थ होते हुए भी, यहाँ तक की तीन भुवन के लोग मिलकर भी प्रभु को चलायमान करने में समर्थ नहीं हैं ।" यह सुनकर अनेक दोषों के संगम समान संगमदेव जो अभव्य है वे कहते हैं कि 'हे स्वामि ! ये आप क्या बोलते हो ? आप मालिक है इसलिये जो चाहे स्वच्छंद रूप से बोल रहे हो वह योग्य नहीं है, यदि ये सचमुच महान होते तो घर-बार का दायित्व छोड़कर ये पाखंड क्यों कर रहे हैं ? घरबार जैसे धर्म के समान दूसरा धर्म क्या है ? इसे कोई चलायमान भी नहीं कर सकता यह बोलना भी योग्य नहीं है। मैं अभी जाता हूँ और उसे प्रतिज्ञाभ्रष्ट करता हूँ ।' ऐसा कह कर संगमदेव पृथ्वीलोक पर आने के लिये निकल पड़ता हैं । उत्तम लोगों का गुणगान अधम लोग कहाँ से बर्दाश्त कर सकते हैं ? इन्द्र महाराज भी प्रभुभक्ति से संगम को गलत बात करने का अवसर पुनः न मिलें इसलिये वे उपेक्षा करते हैं । प्रभु और उनकी काया की माया संगमदेव अभव्य है ये बात आप सभी जानते ही हो । वसंतऋतु में सभी वनस्पतियां जब खिल जाती है तब जबासा नामकवनस्पति मुरझा जाती है । उसी प्रकार जिस प्रभुस्तवना से भव्यलोग प्रसन्न बनते है । उससे ही संगम को खूब गहरा मत्सरभाव उत्पन्न हुआ है । इन्द्र महाराजा ने तो उपेक्षा की ही है, लेकिन सामानिकदेव जैसे ऋद्धि के मालिक गिना जानेवाला संगम देव को उनका प्रधान परिवार रोकता है । फिर भी यह कौन मात्र है ? ऐसा कहकर क्षण भर में पेढालग्राम में प्रभूवीर एवं उपसर्ग 58
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy