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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
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शीत उपसर्ग एवं लोकावधि
त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में अन्तःपुर में एक नापसंद पत्नी थी। उसके हृदय में वैर की गांठ बँधी हुई थी। वह स्त्री भवों में भटकते-भटकते व्यंतरी रूप में उत्पन्न हुई, प्रभु को गंगा किनारे काउसग्ग ध्यान में उसने देखे, तो पुराने वैर को
याद करके इन्हें ध्यान से विचलित करने हेतु तापसी का रूप बनाकर माघ महिने की कड़ाके की ठंढी में गंगा के शीतल जल जटा से उछालकर भगवान महावीर पर शीतोपसर्ग करने लगी । प्रभु ध्यान से तो विचलित न हुए पर ध्यान की स्थिरता के प्रभाव से जिससे समस्त लोकाकाश रूपी द्रव्य जाना व देखा जा सकता है ऐसा लोकावधिज्ञान प्रभु को उत्पन्न होता है । सचमुच जगन्नाथ परमात्मा के धैर्य, शौर्य व गांभीर्य को कौन माप सकता है ?
संगमदेव की द्वारा प्रभु को सताना ।
एक ओर भयंकर तप भद्रादि प्रतिमाओं की साधनाएँ एवं दूसरी ओर उपसर्गों की परंपरा फिर भी अडोल भाव से सबकुछ सहन करते रहते हैं। प्रभु का ये अंतिम भव मानो कि कर्म के साथ सारे हिसाब को चुकाने के लिये ही खाते . में जमा किये गये हों । सहनशीलता साधना की पोषक है। जो सहन करता है वह सफल होता है। मुकाबला करनेवाला मार खाता है। प्रभु श्रीवीर के जीवन की अद्भुत बातें पढ़ें और विचारें तो हम सब को वे परम तारक परमात्मा के भक्त कहलाने का श्री का होगा नहीं कि प्रश्न उपभित हो शके ।
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