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समत्वयोग की साधना समत्वयोग की साधना के लिये प्राप्त जन्म को बड़े पैमाने पर लोग जब बरबाद करते होते हैं तब चक्रवर्ती के रूप में भोगऋद्धि पाकर भी प्रभु महावीरदेव की आत्मा ने जो सफर की है उसे क्या वर्णन किया जा सकता है? एकेन्द्रियादि भवों में तो सामग्री ही नहीं थी और गुंगा-बहरा रहे हैं, किन्तु सभी इन्द्रियों की पटुता हो तब, उसका समुचित उपयोग सिवाय मौन आदि यदिन सेवन किया जाय तो समत्वयोग कहाँ से साधा जायेगा? आपलोग तो मानते है कि आँख हैतो देखना नहीं ? जीभ हो तो बोलना नहीं ? कान हो तो सुनना नहीं? लेकिन शास्त्र जो कहता है वह बात हमारे ध्यान में हैं ? स्वर्गीय पूज्य परमगुरुदेवश्री महात्माओं को हितशिक्षा देते हुए ज्यादातर जिस श्लोक का विशेष उपयोग करते थे उसे भली-भांतियाद रखने जैसाहै। .
आत्मप्रवृत्तावतिजागरूकः परप्रवृत्तौ बधिरान्धमूकः । सदा चिदानन्दपदोपयोगी, लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी ॥१॥
क्या कहा है इस श्लोक में ? आत्मा को हित करनेवाली प्रत्येक प्रवृत्ति में सदा जगे रहने के लिये कहा है,आत्मा को अहित करनेवाली जितनी-जितनी प्रवृत्तियाँ है उसे सुनने के लिये बहरा, बोलने के लिये गुंगा और देखने के लिये अन्धा होने के लिये कहा है, अपनी है वैसी तैयारी ?आवेश में आकर कुछ बोलना नहीं इतना भी निर्णय करना है ? प्रियमित्र चक्रवर्ती की बात कर आये अब नन्दनराज ऋषि की बात आनेवाली है, आत्मज्ञान में रमण करनेवाले महानुभाव जो लोकोत्तर साम्य को पाते है वह अपने जैसे का काम है? आवेश करने के निमित्त मिले तब भी समता में रहना है वहयाद है? हम स्वयं बड़े हो या वरिष्ठ व्यक्ति की जगह बैठे हो, अवसर आने पर दो शब्द किसीको कहना भी पड़े, लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ और दुर्भाव रखे बिना अपनी समक्ष उपस्थित व्यक्ति के हित के लिये कहें तो किन शब्दों में कहा जाय ? समता से जो जीये उसका संसार भी अच्छा चलता है।
एक मील मालिक का प्रसंग स्वर्गीय परम गुरुदेवश्री के श्रीमुख से अनेकबार सुना है, उसका स्वभाव कुछविचित्र था और उसे इसका ख्याल था। कोई कर्मचारी मील में देर से आता या सही ढंग से नहीं चलता तो सीधी छड़ी ही जमा देता, लेकिन जिस दिन जिसको मारे उसका वेतन बढा देता था, क्यों ? उसे अपने स्वभाव का पता था, वह जानता था कि कभी ये लोग सब मील 38
प्रभूवीर एवं उपसर्ग