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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
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जायेंगे तो अनर्थ करेंगे, इससे अचानक ही वेतन बढ़ा दिया जाता था। अतः लोक मार खाकर भी सीधे चलते थे। एक संसार चलाने के लिये इतनी होशियारी चाहिये तो अध्यात्ममार्ग में चलने के लिये कैसा होना पड़े? समत्वयोगे बिना मेहनत आयेगा क्या? शासन के धुरंधर आचार्यादिको गच्छ संचालन या कि शासन की रक्षा के लिये क्या-क्या करना पड़ता है ? लेकिन वहकब सफल होता है, जबसमत्वयोग का लक्ष्य निश्चित होता है तबन?आज श्री नंदनराजकुमार की बात चलानी है।
. नंदन नामक राजकुमार छत्रिकानगरी के जितशत्रु नामक राजा के यहाँ भद्रादेवी की कुक्षी से जन्म पाकर चक्रवर्ती की आत्मा राजकुमार के रूप में अवतार पाया, इनका नाम नंदन रखा गया, भूतकाल की आराधना का बल साथ में है, ढेर सारे कर्म हल्के हो गये हैं, मोक्ष समीप होने पर आत्मद्रव्य विशुद्ध बना हुआ है। चौबीस लाख वर्ष गृहवास में निलेपभाव से रहेहुए हैं। निर्मल सम्यग्दर्शन के प्रभाव से राजवैभव को भोगते-भोगते चारित्र मोहनीय कर्म खपाया है। . पुण्ययोग से सुख-वैभव-राजऋद्धि प्राप्त हों तोशानियों को ईर्ष्या नहीं है, लेकिन उसमें अनुरक्त होकर जीनेवाले को ज्ञानीजन दयापात्र गिनते हैं। निर्लेप भाव से जीनेवाले को यहाँ अनुमोदना ही है। पापानुबंधी पुण्योदयवाले अच्छे खासे जीवों तो संसार में भटकने के लिये कमी हुई कर्म की लकड़ियों को एकत्रित करने के लिये ही अच्छे जन्म में और अच्छी सामग्री में आते हैं वे सभी दया के पात्र गिने जाते हैं।
.. राजकुमार नन्दन तो श्रेष्ठ साधनाएं पूरी करके आया हुआ जीव हैं, उन्हें ये राजभोग ऋद्धि-समृद्धि कुछ नहीं कर सकती । राजवैभव का त्याग करके संयम का स्वीकार करते हैं। शास्त्र में साधुपना की जहाँ-जहाँबात आती हैवहां लिखते हैं, संयम स्वीकारा, तपोमय साधना करने लगा,लहु-मांस सुख गया, इतने-इतने आगमादिशास्त्रों का पारगामी बने आदि' श्रीनन्दनराजर्षि भी इसी प्रकार श्रेष्ठ साधुता को चढते परिणाम में आराधना करने लगे है, ग्यारह अंगसूत्रों के पाठी बने, काया की माया छोड़ दी व माया की छाया छोड़ दी है, पित की परिणति को विशुद्ध बनाते ही रहे हैं, अब तो यह पच्चीसवाँ भव हैन? तीर्थकर नामकर्म की नीकाचना इस भव में करनी हैन?