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वीर प्रभु की आत्मा सातवी नरक में और सिंह में एवं चौथी नरक में । का भव फिर चौथी नरक का भव पाकर अगनित भव पर्यन्त संसार में वह परम तारक की आत्मा ने परिभ्रमण किया । भव में भटकते और अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करते उपार्जित कर्म क्षीण होते हैं। कर्मलघुता फिर वापस जीव को ऊपर आने का निमित्त प्रदान करती है। तदनुसार प्रभु की आत्मा भी कर्मलघुता से मानवजन्म पाती है और शुभ कर्म के प्रभाव से महाविदेह की मूकापुरी में राजा धनंजय और रानी धारिणी के पुत्र रूप में चक्रवर्तीसूचक चौदह स्वप्न सहित जन्म धारण करती है। प्रियमित्र कुमार पिता द्वारा दीक्षा स्वीकारने पर प्रदत्त राज्य का पालन करते हुए छह खंड की साधना कर चक्रवर्ती का महाभिषेक को प्राप्त करता है। चक्रवर्ती के रूप में विशाल ऋद्धि
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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
PUTO