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प्रभूवर एवं उपसर्ग
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आदेश से चावल के खेत की रखवाली के लिये पिता के स्थान पर जाकर सिंह को फाड़ने का कृत्य, वासुदेवपना के मद में मस्त होकर संगीतकार के कान में तपाया हुआ सीसा डालने का कार्य और अन्य भी कितने ही अनेक करुण कृत्य करने लगे, विचरण करते प्रभु श्रीश्रेयांसनाथ दादा के समवसरण में गंवाया हुआ समकीत फिर से पाया फिर गँवाया और सातवें नरक की रौरव वेदना होने का जो ललाट में लिखा गया था वह होकर ही रहा ।
पतन और उत्थान
इस भरतक्षेत्र में प्रथम वासुदेव रूप में गौरव मिला, लेकिन मद करने से नीच गोत्र बँधाया था। उसी के आंशिक विपाक रूप में बहन को माता बनाकर उनकी कुक्षी में उत्पन्न होने का प्रसंग बना, ढेर सारे कुकर्मों को करके श्रेष्ठ मानव जन्म को नरक का अतिथि होने का कारण बनाया ।
शय्यापालक के कान में शीशा डालते हुए ।
श्री तीर्थंकरदेव की आत्मा को भी कर्म छोड़ता नहीं, तो दूसरे की क्या मजाल ? कर्म की सत्ता प्रामाणिक सत्ता है, राजा या रंक, शेठ या शठ, नौकर या मालिक किसी के लिये कोई भेदभाव नहीं । प्रभु महावीरदेव की आत्मा भी भान भूल जाये तो उसे भी नरक में भेजे, तीर्यंच के भव में भी ले जाय, जो कि अवश्यंभावी को कोई अन्यथा करता नहीं, लेकिन महान आत्माएँ अन्त में अपना मूल स्वरूप को पाने के लिये पुरुषार्थ करके फल पाते ही है।
सातवीं नरक की दीर्घकालीन यातना, अर्थात् तैतीस सागरोपम अर्थात् तीनसौ तीस कोटाकोटी पल्योपम तक वेदना भोगकर विकराल सिंह