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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
सया तिगुत्तिगुत्तओ पसत्थलेसजुत्तओ । पयंडदंडवज्जिओ जिणिदमग्गरंजिओ, पण माणकोहओ विणीयमायमोहओ ॥३॥ जणाण बोहकारओ कुतित्थिदप्पदारओ, अपुव्वकप्परुक्खओ पण सत्तुपक्खओ । मुणिदविदवंदिओ असे सलोयनंदिओ, अणेगछिन्नसंसओ पण सव्वदोसओ ॥४॥
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तस्स एवंविहस्स गुरुणो पलोयणेण समत्थतित्थदंसणपुयपावं पियप्पाणं मण्णमाणो सव्वायरेण पणमिऊण चरणकमलं उवविट्ठो सन्निहियभूमिभागे, गुरुणाऽवि पारद्धा महुमहणापूरियपंचयण्णरवाणुकारिणा सरेण धम्मदेसणा । - महावीरचरियम् अति प्रशस्त गुणरत्नों के सागर, तेज से सूर्य के समान, सौम्यता से पूर्णचंद्र जैसा, विशुद्ध सुखवल्लरी का मूलरूप, मेरु के समान निश्चल, संघ के कार्य को वहन करने में समर्थ, देव और राजाओं ने अथवा देव-मनुष्य के राजाओं ने जिसकी आज्ञा को वहन किये हैं ऐसे, दुष्ट कामरूप पटल का • नाशक, तपरूप अग्नि से पाप को जलानेवाले, विशुद्ध भावनाभावक, त्रिगुप्ति से गुप्त, प्रशस्त श्यावान् आदि अनेक गुणसंपन्न गुरु को पाकर सर्वतीर्थ के दर्शन से पवित्र हुए अपने को माननेवाला, सर्व आदर से उन्हें नमन करते हैं, गुरु के प्रति बहुमान आत्मा की गुरुता का सूचन करता है 1 भवतारक गुरु के प्रति तुच्छ दृष्टि, आत्मा की तुच्छता का सूचन करती हैं। जिस काल में जो कोई संविज्ञ गीतार्थ गुरु का योग हो. वे गौतमतुल्य लगे तो उनके प्रति सच्चा समर्पण सम्भव होता है तभी उनकी आज्ञा को पालन करने के लिये बल प्रकट हो सकता है । गुरु के भी दोष देखने में जो ठोस बने इनका निस्तार कौन कर सकता है ?
तपोमय साधना और नियाणा
गुरु ने धर्मदेशना दी, संवेग का अतिशयपूर्वक दीक्षा स्वीकारकर वह विश्वभूति अनगार बने, ग्रहण - आसेवन शिक्षा पाकर आराधना में लग गये । 'राजा दीक्षा का समाचार पाते ही शोकमग्न होकर युवराज आदि परिवार सहित मिलने आये, वन्दनादि करके उपालम्भपूर्वक अपनी व्यथा प्रकट की । महात्मा