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________________ आप उद्यान में प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि विशाखानंदीकुमार उद्यान में हैं। यह सुनते ही विश्वभूति को आघात लगा । वह समझ गया कि मुझे हटाने के लिये ही यह चाल चली गयी थी । क्रोधसे काँपने लगा और एक मुट्ठी से कोठा के वृक्ष को मारा मारकर कोठे गिराये और सामने खड़े उद्यानरक्षकों से बोला कि इसके तरह ही तुम्हारा सिर भी तोडकर नीचे गिरा सकने में समर्थ हूँ लेकिन पिताजी की लज्जा, कुलकलंक का भय और लोकापवाद की चिन्ता मुझे मना करती है । तदनन्तर उग्रकोप शांत होने पर संवेगपूर्वक विचार करने लगा । विश्वभूति का चिंतन युवराजपुत्र विश्वभूति का चिन्तन कितना मार्मिक है और वास्तव में अद्भुत है । वह विचार करता है कि 'विषयाधीन जीव किन-किन अवहेलनाओं का शिकार नहीं होता ? किस दुष्कर्म को करने में वह तैयार नहीं होता ? वज्र समान आपत्ति का भोग बनता नही ? विषयासक्त जीव का विनयभंग कौन नहीं करे ? जो जीव स्त्री परांमुख हो जाय तो स्वप्न में भी दुर्गति का दुःख पाये नहीं । अहो इस विधिने महिला नामक कैसा यन्त्र बनाया है कि जो हाथी का पासबंधन, घोड़े का लगाम, पक्षी का पिंजरा, पतंगों के लिये दीपशिखा और मछली के लिये जाल की भांति बंधनं रूप बनता है । जिसके मन में स्त्री का वास नहीं है उसके मन को श्रेष्ठ गंधभी क्या कर सकता है? यौवन के अन्धकार से मेरे विवेक रू पी नेत्र बंद नहीं हुआ होता तो घर में ही नहीं रहता और इस पराभव का प्रसंग ही नहीं बनता, खैर, अब भूतकाल को मंथन करने से क्या लाभ ? अब भी सर्म की साधना कर लूँ' ऐसा निर्णय करके वहाँ से सीधा गुरु की खोज में निकलते ही आचार्य श्रीसंभूतिसूरि नामक गुरु का दर्शनयोग का लाभ हुआ । ये सभी विश्वभूतिकुमार के विचार का स्वयंभू ही निमित्त बनकर उत्पन्न हुआ है । वैराग्यपूर्वक गुरु के पास पहुँचता है और गुरु का दर्शन होते ही जिस दृष्टि से उसने गुरु को देखा है वह प्रभु वीर के आत्मा की महानता का द्योतक है। भवतारक गुरु का दर्शन अइपसत्थगुणरयणसायरो, तेयरासिना वइ दिवायरो | सोमयाए संपुन्नचंदओ, जो विसुद्धसुहवेल्लिकंदओ ॥१॥ मेरुसेलसिहरव्व निच्चलो संघकज्जभरवहणपच्चलो । सुरनरिंदपणिवयसासणो, दुट्ठकामतमपडलणासणो ॥२॥ तवऽग्गिदडपावओ विसुद्धभावभावओ, प्रभूवीर एवं उपसर्ग 30
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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