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________________ 23 प्रभूवीर एवं उपसर्ग पूर्व की तरह ही प्रभु के साथ विहार किया और अनेक जीवों को प्रतिबोधकर प्रभु के पास दीक्षा हेतु भेजा, प्रभुनिर्वाण के बाद भी यही क्रम रहा । साधुपना के प्रति कैसा आदर रहा होगा? . रोग और चिकित्सा शरीर रोग का घर है। शरीर में रोग न हो या नहीं होवे तो आश्चर्य की बात है, रोग हो या होवे उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। कहा जाता है कि शरीर में साढे तीन करोड़ रोम हैं। एक-एक रोम में पौने दो रोग है। कोई भी निमित्त पाकर कभी भी रोग उत्पन्न हो सकते है।साधु को भी रोग हो सकता है, तपोमय संयम साधनेवाले को भी रोग का संभव हैं।अशाता कर्म को समझने के बाद आश्चर्य पाने जैसा क्या है? जिस प्रभु की बात कर रहे है वे श्री महावीर प्रभु को भी केवलज्ञान होने के बाद छह मास लहुमय अतिसार होने की बात शास्त्र में प्रसिद्ध है। इस काल के धन्नाजी के रूप में साधु समुदाय में प्रसिद्ध पू. पंन्यासप्रवर श्रीकांतिविजयजी महाराज जैसे महासंयमी-तपस्वी महात्मा को भी कैंसर हुआ।कर्म का उदय किसे नहीं होता है ? जब कि उत्सर्ग मार्ग में हमें चिकित्सा की अनुमति नहीं हैं, सहन ही करने के लिये कहा गया है। बाइस परिसहों में रोग परिसहबताया है।सहन करे वहसाधाऐसी साधु की व्याख्या है । द्रव्योपचार अन्त में तो द्रव्योपचार ही है। उससे अच्छे ही हो जाय ऐसा नियम नहीं।अशाता तीव्र हो तो उपचार कुछ नहीं कर सकता, इसलिये उत्सर्गमार्ग में तो समता रखनी, ममता को मारकर रहना ऐसा ही कहा गया है। मेरा चले तो ‘दवा करनी ही नही । ऐसा आग्रह रखा जाय । मैं अपने परिणाम को टिका सकता हूं, समता रहे तो उपचार की जरूरत नहीं । यदि अपने आप को पता न चले तो गुरु महाराज जैसा कहें वैसा करना । कदाग्रह न करना। कारण कि कदाग्रही कभी आज्ञा पालन नहीं कर सकता । इस काल में आराधकभाव टिकाना या पाना, काफी कठिन है। ज्ञान किसी के पास नहीं, गुरु भगवंत शास्त्रों के ज्ञाता और अनुभवी हैं। उनकी आज्ञा को सर्वस्व माननेवाला भी आराधक बन सकता है। उन सब की योगक्षेम करने की जिम्मेदारी है। उत्सर्ग मार्ग में चलने की ताकत नहीं हो तो अपवाद मार्ग भी प्रभु की आज्ञा ही है। अपवाद मार्ग में उपचार कराना पड़े तो अपने सत्व को मापकर आराधक भाव कोटिकाने केलक्ष्य से औषधकरना हितावह है।
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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