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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
21 इत्यादि का स्वरूप बताते हैं। इन्द्र अपने लोकार्ध में विचरणकर लाभ देने के लिये निवेदन करते हैं तब चक्री अपने षट्खंड में विचरने हेतु विनतीकर प्राप्त लाभ से संतोष पाते हैं, इसके बाद शक्रेन्द्र महाराजा के निर्देशानुसार अपने से गुणबहुल साधर्मिक बंधुओं की भक्ति में ओतप्रोत हो जाते हैं । सर्वार्थसिद्ध विमान से मनुष्यत्व प्राप्त और तद्भव मुक्तिगामी श्री भरतमहाराज एक के बाद एक घटनाओं से दुःखी हुए थे, लेकिन अवसर जानकर इन्द्र महाराजा ने उनका दुःख हल्का हो इस तरह प्रभु से अवग्रह की व्यवस्था इन्हें बतायी । इसके फलस्वरूप भरतमहाराजा संतोष-परितोष पाये, आप लोग तो अवग्रह की व्यवस्था जानते हो न ? चक्रवर्ती की व्यथा और संतोष, ये वस्तुतत्त्व की अज्ञानता होने पर भी विवेक होने से संभव हुआ है।
. . भावि तीर्थकर संदर्भ में प्रश्न - समवसरण की अद्भुत रचना और प्रभु का परमैश्वर्य अच्छे-अच्छे के दिल में चमत्कार पैदा कर देता है।इसी से ऐसा कहा गया है कि सभी प्रकार के कुतुहलवृत्ति से पर ऐसे साधुओंने कभी भी समवसरण का दर्शन नहीं किया हो, और मालूम हो कि बारह योजन में समवसरण रचा गया है तो अवश्य ही दर्शन करने जाना चाहिये अन्यथा प्रायश्चित का हकदार होता है' अर्थात् समवसरण के दीदार आत्मा के दीदार को पलटा दे ऐसा है। मिथ्यात्वादि भावों को दूरकर सम्यक्त्वादि गुणों को पैदा कर दे ऐसा है। श्रीभरतमहाराज प्रभु की समवसरणऋद्धि को देख इनसे पूछते हैं कि 'प्रभो ! आप जैसे भुवनगुरु हैं ऐसे इस भरतक्षेत्र में कोई दूसरे होनेवाले हैं ?' प्रभु ने कहा कि होंगे। फिर तेइस तीर्थंकरों का स्वरूप वर्णन किया। इसके बाद तो चक्रवर्ती के संदर्भ का भी जबाब दिया, तब फिर चक्री विशालपर्षदा पर दृष्टिपात काके पूछते हैं कि प्रभो !इस पर्षदा में से कोई तीर्थंक बनेगा? भरतमहाराजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने परिव्राजक वेशधारी मरीची को बताते हुए कहा कि ये तुम्हारा पुत्र भरतक्षेत्र का अंतिम तीर्थंकर होगा ।अर्धभरत का स्वामी त्रिपृष्ठ नामक पहला वासुदेव होगा और महाविदेह की मूका नामक राजधानी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा' त्रिकालज्ञानी प्रभु ने जो वास्तविकता थी उसे भली-भांति बता दिया । अपना पिता प्रथम तीर्थंकर स्वयं प्रथम चक्री और खुद का पुत्र प्रथम वासुदेव और चरमजिन एवं चक्रवर्ती होगा । ये सभी बात चक्रवर्ती भरत