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सुनने से उत्पन्न हो जाय तो? लेकिन “वो दिन कब जब मीयां के पाँव में जूता" जैसी अपनी दशा है। भव का भयन होगा तबतक क्या हो सकता है?
. अब मरीची पूर्ववत् श्रीऋषभदेव प्रभु के साथ में विहार करता है। नूतनवेश लोग देखते हैं, तमाशा का होड़ नलगे, प्रभुका दर्शन प्राप्त करके एवं देशना सुनकर लोग मरीची के पास आते हैं,और पूछते किधर्म क्या है ? सूत्रार्थ के ज्ञाता देशनालब्धिसंपन्न मरीची शुद्ध साधुता को धर्म बताकर उसका सुंदर स्वरूप उभारते हैं। लोग पूछते कि भगवन् ! जब मुनिमार्ग ऐसा है तो आप इसे क्यों नहीं अपनाते ? तब मरीची बताते कि महानुभावो, मैं तो संसारानुसारी हो गया हुँ। मोहराजा से पराजित हुँ। आप लोग ऐसा न विचारे कि मेरी कथनी व करनी दोनो अलग है। मेरे गुणदोष का विचार छोडकर रोगपीडित वैद्य की भाँति इनके द्वारा बताया गया श्रेष्ठ औषधरू पी सच्ची बात को स्वीकारें और संसार तारक मुनिधर्म प्राप्त करें।
मरीची की बात से भववैराग्य प्राप्त महानुभाव दीक्षा हेतु तैयार होकर आते हैं, तब मरीची शिष्यभाव से आये सभी को भगवान श्रीऋषभदेव के पास सौंप देता हैं। इस प्रकार प्रतिदिन लोगों को प्रतिबोधदान करते हुए, स्वदोष निंदा करते हुए, सुसाधुता का पक्ष ग्रहण करते, सूत्रार्थ का चिंतन करते सुखशीलपरायण व अपने कल्पित वेश में रहते हुए प्रभु ऋषभदेव के साथ विचरण करते हैं।
भरत महाराजा को परितोष भगवान ऋषभदेव भरतभूमि को पावन करते-करते अष्टापदगिरि पर समवसरे हैं।भाईयों के संयमग्रहण से शोकाकुल भरतमहाराज प्रभुको वंदन करके भाईमुनियों को मोहवश भोग हेतु विनती करते हैं। निलित महात्माओं के निस्पृहभाव से दंग हुए भरत पाँचसौ गाड़ी भरकर मंगाये हुए उत्तम द्रव्यों को ग्रहण करने के लिये विनती करते हैं। लेकिन आधाकर्मी और लाये गये आहार का निषेधहोने पर, स्वयं के लिये तैयार किये आहारपानी का आग्रह करते हैं। तब राज्यपिंड साधु को नहीं कल्पता है यह जानकर अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं, इनके दुःख को दूर करने के लिये इन्द्र महाराजा प्रभुसे अवग्रहका स्वरूप और इसका कारण पूछते हैं। तब भगवान वर्णन करते हुए बताते हैं कि मुनिजीवन में जीने के लिये रहने योग्य वस्ती में लोकार्ध स्वामी इन्द्र महाराज चक्रवर्ती राजा, मंडलीकराजा-मकान मालीक और पहले पधारे हुए महात्माआदि की अनुमति 20
प्रभूवीर एवं उपसर्ग