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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
मरीची की वेशकल्पना का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने कमाल की है। मरीची के विचार का परिचय शब्ददेह में देते हुए कहा गया है । (१) मुनिभगवंत मन वचन काया के दंड से रहित है। अशुभ व्यापार के त्याग से संलीनदेहवाला है । मैं ऐसा नहीं हुँ कारण कि मैं इन्द्रियों से हारा हुँ, उच्छृंखल मन वचन काया से पराजित हुआ हूँ इसलिये मेरी पहचान करानेवाला त्रिदंड का प्रतीक हो। जिससे कि मुझे पूर्वजीवन की प्रतीति हो और मैं यह चिह्न देखते ही मेरे दुश्चरित्र के पश्चाताप से विशिष्ट पालन हेतु उद्यमी बनूं । (२) महात्मा केशलोच और इन्द्रियनिग्रह से मुंडित है । मैं इन्द्रियनिग्रहरहित हुँ इसके लिये मेरे व्यर्थ के केशलोच से क्या ? इसके लिए अस्तुरा से मुंडन और मुनिवेश से अलग दिखनेवाला शिखाधारण हो । ( ३ ) महात्मा त्रिविध - त्रिविधरूप से पापव्यापार का त्यागपूर्वक संयम पालते हैं। मैं उस लायक अब रहा नहीं । इसलिये मेरे स्थूलता से पाप का त्याग हो । ( ४ ) मुनि सर्वत्यागी अकिंचन होते हैं मैं वैसा नहीं हूँ, इसका अविस्मरण रहे इस हेतु सोने की यज्ञोपवीत आदि परिग्रहहो । (५) मुनिभगवंत जिनोपदिष्ट संपूर्ण शीलजल से कर्ममल को शुद्ध करनेवाले होते हैं, इसी से शीलसुगंधसे सुशोभित हैं। मैं निर्मलता की दृष्टि से दुर्गंधवाला हूं, इसलिये गंधचंदन आदि का प्रयोग दुर्गंधनिवारण के लिये हो । (६) तपस्वी मोहमुक्त होते हैं और निष्कारण उपानह अर्थात् जूते चप्पल का उपयोग पादत्राण के लिये नहीं करते किन्तु, मैं तो मोहवश शरीर की रक्षा के लिये सचेष्ट हुं इस हेतु मेरे लिये छत्र व उपानह का परिभोग हो । ( ७ ) साधु श्वेतमानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र के उपभोक्ता होते हैं। मैं तो गाढ कषायों से कलुषित बुद्धिवाला हुं इसलिये मेरे धातुरक्तरंजित वस्त्र हो । ( ८ ) मुनिजन पापव्यापार से पर होते हैं, इसके लिये अनन्तजीवों से व्याप्त जल के आरंभ को मन से भी इच्छा नहीं करते, जब कि मैं तो संसार के अनुसार बुद्धिसे चलनेवाला हुं इसलिये मुझे परिमित जल से स्नान - पानादि हो ।
देशना लब्धि और प्रतिबोध
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महानुभावों ! मरीची की बुद्धिकल्पना भी कैसी है? स्वदोष दर्शन कितना दुर्लभ है? दोषदृष्टिस्वदोषदर्शन के लिये उपयोग हो तो काम बन जाय न ? जगत के दोष देखने से स्वयं दोषपरिपूर्ण होते है, स्वयंदोष दर्शन से जीव निर्दोष बन जाता है। इतनी सीधी सी बात की समझदारी हमारे में इस प्रसंग के