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हमने देखा कि नये वेशधारण में घर जाने केसंभवित भयस्थानों से बचने का भी इरादा है और साधुवेश की मर्यादा को पालने में कमजोर होने से वेश की वफादारी भी कारण है ऐसा समझा जा सकता है। लेकिन वे तो लज्जालु थे इसलिये । जो लाज शरम छोड़ देता है उसके लिये क्या ? इस वेश में भी मर्यादाशून्य होकर जीना हो तो कौन रोकनेवाला है ? इसके साथ ही घर जाकर रहना हो तो भी कौन बोलनेवाला है ? लज्जा नामक गुण से, निर्मल सम्यक्त्व के प्रभाव से और हृदय में पड़ी वेश की वफादारी से स्वबुद्धिकल्पित वेश में भी इन्होंने जो शोचा है, उसे आप स्तवन में सुनते ही हैं। इसके साथ ही शास्त्रकारों ने भी खुब स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया है, उसे भी इस अवस्था में उनकी विशेषता को समझने के लिये पर्याप्त है ।
मरीची की वेशकल्पना
भगवान श्रीमहावीरदेव के वर्तमान में उपलब्धजीवनचरित्रों में प्राकृतशैली में रचा गया श्रीगुणचंद्रगणि का' श्रीमहावीरचरियं' विस्तृत गिना गया है । किसी महात्मा का सुयोग पाकर 'संपूर्ण अक्षरशः सुन लेने जैसा है ।
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त्रिदंडिक वेश में मरीची ।
प्रभूवीर एवं उपसर्ग