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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
इसकेविरुद्ध वर्तन करनेवालों की रवबर लेने के लिये मैं सतत जाग्रत रहता हूं।"जिस मरीची की हम बात कर रहे हैं वे तो ये सभी जानते ही थे, किन्तु कर्मने उसके उपर जबरदस्त हमला कर दिया है । ग्रीष्मकाल की उष्णता से संतप्त होकर विचारपंक में फंस गये है, लेकिन मार्ग को किसी भी प्रकार से जरा भी हानि न पहुंचे इसकी उन्हें चिन्ता है। इसीलिये उनका विचार जानने जैसा है।
मरीची के विकल्प मरीची विचार करता है कि क्या करना चाहिये ? यहां रहकर दोषग्रस्त होना नहीं, पूर्ववत् शुद्ध चारित्र का पालन असंभव लगता है। क्या अपन को नहीं लगता है कि उसने कितने प्रयास किये होंगे? थकने के बाद ही लगा होगा कि अब क्या करूं? क्या उपाय करना चाहिये? देशान्तर चला जाउं? अथवा तो ये सब मन की व्यथा किसे बतलाउं? सभी विकल्पों से निकला, प्रव्रज्या छोड़कर अपने घर चला जाउं यही अवसरोचित है। ओ हो... हो... छह खंड साम्राज्य के भोक्ता भरतचक्री का पुत्र होकर स्वयं छोड़े हुए घर कैसे जाया जायेगा? मुझे प्रतिज्ञाभ्रष्ट जानकर मेरे माता-पिता स्वयं लज्जा से नतमस्तक नहीं हो जायेंगे? मेरे साथ जन्मे हुए व बड़े हुए मेरे मित्र आदि स्वयं स्वीकारे हुए श्रेष्ठ धर्म से भ्रष्ट जानकर मेरी अवहेलना नहीं करेंगे? या महापापाचारी मैं किसका दृष्टांत बनूंगा? इसलिये घर जाना बिल्कुल उचित नहीं है। इसके लिये सभी प्रकार से मन का नियमन करना (एकचित्त होना) यही उचित है। लेकिन यहजरा भी संभव नहीं लगता।तब यह यतिधर्म अत्यन्त अप्रमत्त महासात्विकों के द्वारा करने योग्य है। मैं एकदम कायर हो गया हुँ, क्या करूं? किस उपाय काअंनुशरण करूं? इस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ हुए मरीची, कर्म की अचिन्त्य महिमा से, जीव की भवभ्रमणशीलता से अवश्य भावी के योग से विचारते हुए दोनो बात रहे अर्थात् कि घर भी जाना नहीं पड़े एवं साधुधर्म का भी अपमान नहीं हो ।इस तरह स्वस्फूर्तबुद्धि के अनुसार मरीचीने वेश परिवर्तन की कल्पना की है। स्तवनकारने भी गाया हैं 'नवो वेश रचे तेणी वेळा, विचरे आदीसर भेळा ।' साधु-महात्मा से अलग ही वेश रचकर मुनिधर्म का त्याग करके परिव्राजक वेश धारण किया। यहां स्मरण रहे कि साधुपना को गँवाया परन्तु, सम्यक्त्व को टिकाया है, प्रभुवचन का पक्षपात बकरार रखा है।