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________________ 13 प्रभूवीर एवं उपसर्ग इसके बाद देवलोक का आयुष्य भी पूराकर भरतचक्रवर्ती के यहाँ वांमा रानी की कुक्षि में शुभस्वप्नपूर्वक नयसार का अवतरण होता है । श्री भरतचक्रवर्ती के विशाल अन्तःपुर में वामारानी कुक्षि में रत्न धारण करनेवाली, शील, सौन्दर्य और सत्ववती स्त्री थी । देवलोक से च्यवनप्राप्त नयसार की आत्मा शुभस्वप्नसूचन के साथ रानी की कुक्षि में अवतरी । समुचित समय होते ही एक मध्यरात्रि के शुभ घड़ी, शुभ समय में जन्म होने के बाद बालक की शरीरकांति से समूचा जन्मघर प्रकाशमय हो गया। मरीयंची या मरीचि अर्थात् किरण... अंधकार में प्रकाश फैलानेवाला इस बालक का नाम इसी से मरीची रखा गया । तप व संयम के लिये साधुजीवन चरम तीर्थपति श्रमण भगवान श्रीमहावीरदेव के तीसरे भव स्वरूप में ख्यात मरीची नामक भवं अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । मरीची का बाल्यकाल, किशोरावस्था और अध्ययनकाल पूर्ण हुआ, वह युवावस्था में प्रवेश करता है, इतने में युगादिनाथ भगवान श्रीऋषभदेवस्वामी के आने का समाचार इन्हें मिलता है । देवों द्वारा चार प्रकार से की जाती पुष्पवृष्टि आदि देखकर एवं प्रभु की एक हीं देशनाश्रवण से मरीची प्रतिबोधित हुआ । प्रतिबोध अर्थात् ? आज तो अमुक गुरु महाराज से मैं धर्म पाया इसलिये अमुक व्रत का पच्चक्खाण लिया इत्यादि... वास्तव में धर्म का मतलब ही है साधुपना, प्रतिबोधपाने के प्रसंगों में सर्वविरति या देशविरति की बात विशेष प्रकार से 'देखने को मिलती है ! मरीची प्रतिबोधपाया इसलिये माता-पिता की आज्ञा लेकर भगवान ऋषभदेवस्वामी के पास दीक्षाग्रहण किया। दीक्षा स्वीकार के बाद एक तरफ घोर तप तो दूसरी ओर स्वाध्याय की धूनी लगा ली। इन दोनो • साधनाओं के बदौलत शनैः शनैः कदम दर कदम संयम के साधक बन गये । मेरे परम तारक परम गुरुदेव श्री ऐसा कहते थे कि 'तप और संयम के लिये मैनें तुम्हें दीक्षा दी है। यहां आकर तप और संयम की जगह दूसरा कुछ करते देखे तो . सच्चे अर्थ में जो गुरु होंगें उसके हृदय में क्या होगा, वहतुम्हें क्या मालूम ? ' मरीची तो तप एवं संयम में मग्न हो गये है, एक आदर्श साधु जीवन जीने लगे है ।. परिषह - उपसर्गों को सहन करने में देह की परवाह किये बिना ही एकचित्त हो गये । घोर तपश्चर्या और साधनाओं को देखकर लगता है कि |
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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