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________________ प्रभूवीर एवं उपसर्ग 11 हमारी क्या दशा है ? भगवान महावीर परमात्मा की आत्माने तो नयसार के भव में सम्यक्त्व पाया । तब से प्रभु का पंचेन्द्रियवाली चारो गति मिलकर २७ भव हुए। सम्यक्त्व पाते ही हो रहे परिवर्तन देखने योग्य है । नयसार की विनती I समकीत पाते हि, जीव की प्रवृत्ति पलटे या न पलटे, परन्तु परिणाम अवश्य पलट जाते है । स्वर्गीय परम गुरुदेवश्री अनेक बार फरमाते थे कि - समकित का मन मोक्ष में, अब घर का नहीं बल्कि मोक्ष का हो गया । जीवमात्र के प्रति उसकी भूमिका पलट (बदल) जाती है। इसीलिये कहा हैं कि 'एक जीव समकित पाता है अतः चौदह राजलोक में अभयदान का ढिंढोरा पीटा जाता है। एक जीव साधुजीवन को अपनाता है तो चौदह राजलोंक के जीवों के लिये अभयदान की सत्रशाला खुल जाती है ।' एक में सव्वेजीवा न हंतव्वा का स्वीकार है। एक में त्रिविध- त्रिकरणयोग से उसका अमल है । सम्यक्त्व मोक्ष का बीज है। समकित पाते ही जीव को घरवास अप्रिय लगता है, ऐसे कहा जाय कि अब पक्षी पिंजरे से उड़ने के लिये पंख फडफडाने लगा है। ऐसे देखा जाय तो नयसार ने द्रव्योपकार किया था, जंगल में चक्कर खाते, भटकते महात्माओं को विनयपूर्वक लाया, आहार- पानी दिया, सही ..मार्ग बताया, किन्तु मुनिवरों ने उसे अध्यात्म मार्ग में चलने की प्रेरणा दी । अध्यात्म का द्वार खोल दिया। हमसब की दशा सचमुच शोचने जैसी है। आज कोई महात्मा की दीक्षा में या स्थिरता में अथवा अभ्यास में कोई व्यक्ति निमित्त बनता है तो अपना यशोगान गाया ही करता है कि 'यह कार्य मैनें किया । ये महात्मा हमारे यहाँ पढे, इन्हें पढने की कोई व्यवस्था ही नहीं थी।' इस प्रकार न जाने कितनी ही कीर्तिगाथा गाये फिरते हैं। जबकि यहां आप देख सकते हैं कि नयंसार का नम्र और सरल स्वभाव उसकी भावी भद्रता का संकेत देता है। देवगुरुधर्म का स्वरूप समझे हुए नयसार महात्माओं से क्या विनती करता है ? प्रभो! आप हमारे घर पधारे। मैं और मेरा सर्वस्व आपके चरण में है ।' समकिती आत्माएँ समकितदाता अपने गुरुदेव के प्रति कैसा अहोभाव और समर्पणभाव रखते हैं ? इसे इस प्रसंग से समझा जा सकता है। जैनशासन के गुरुवर्ग की निस्पृहता भी कितनी अदभुत होती है। इसी से महात्मा नयसार से कहते हैं कि महानुभाव, हम सभी संसारत्यागी साधु है । इसलिये राज्यादि की ऋद्धियाँ हमारे किस काम की है ? परन्तु यह बात उपर से इतना निश्चित है कि
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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