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________________ भगवान महावीर और समाजवाद भगवान महावीरने आयातुले पायासु - सबको आत्मवत्-मानने का उपदेश दे कर मानो आज हम जिसे समाजवाद-साम्यवाद.या तो समानतावाद कहते हैं - उनके मूलभूत प्रयोजनका ही उद्बोधन किया था। स्वतः सिद्ध समाजवाद : - सामाजिक विषमताके निराकरण के हेतुसे अर्थप्रधान दृष्टिसे प्रेरित समाजवादका आधार भौतिक है । इसके अनुसार आर्थिक क्रियायें ही समग्र मानवीय चिन्तन और प्रगति के केन्द्र में है । समानरूपसे संपत्तिका वितरण करने से, और कायदा-कानून द्वारा उसे दृढीभूत करने से शोषणविहीन समाजकी रचना करनेका उसका ध्येय है। समाज में बाह्य रीतिसे समानता स्थापित करने की यह कोशिश समाज से व्यक्ति की और जाती है। जब की आत्मवत् सर्वभूतेषु-की भावना चरितार्थ करनेका भगवान महावीर का उपदेश तप और संयमपालन का महत्त्व समझाकर व्यक्ति की अंतर्चेतनाको व्यापक और विशुद्ध बनाता है । राजकीय साधनों से दमन द्वारा नहि लेकिन व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास द्वारा सहजरुपसे सिद्ध होनेवाली समानता के वे आग्रही थे। सामाजिक समानता और न्याय उनके आचारदर्शन का स्वाभाविक परिणाम है। यहाँ संयमी और मैत्रीभावना से युक्त व्यक्ति समाजवादके हेतुको अनायास ही सिद्ध करता है। वह कभी शोषण, उत्पीड़न या क्रूरतायुक्त आचरण नहीं करेगा कि जिससे समाज में विषमता का वातावरण उत्पन्न हो । समाजवाद और भगवान महावीर के उपदेशमें मानवमात्र की समानतामें आस्था, लोभ और संग्रहवृत्ति का विरोध और इसके द्वारा शोषणविहीन समाजव्यवस्था की स्थापना के बारे में अनेक रूपसे विचारसाम्य है लेकिन उनकी नीति-रीतिमें काफी तफावत है। अहिंसा, अपरिग्रह और भोगोपभोग परिमाणव्रत द्वारा समाजवाद
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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