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जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा का निरुपणः तुलनात्मक दृष्टि से
हिंसा के बजाय अहिंसा से भी न्याय प्राप्त हो सकता है । हमें बार बार कहा गया है कि प्रेम-समभाव - सहिष्णुता - सब से ज्यादा शक्तिशाली साधन है जिससे सत्य विजयी सिद्ध होता है। महावीर स्वामीने चंडकोशिक नाग को और बुद्धने शांत सद्भाव से अंगुलिमाल को वश किया था, जिसे राजा प्रसेनजित बड़े से बड़े सैन्य की सहाय से भी वश नहीं कर सका था । आज के समय में गांधीजी के सत्याग्रह तथा विनोबाजी और रविशंकर महाराज के दृष्टांत हमारे सामने हैं, जिन्होंने अहिंसा की शक्ति से न्याय पाया था । और 'दूरितों' पर भी विजय पाया था । अलबत्त यह अनिवार्य है कि अहिंसा के शस्त्र से लड़नेवाले व्यक्ति को अपने आप संपूर्णरूप से अहिंसा और प्रेमभाव से ओतप्रोत होना चाहिए। लेकिन अहिंसा कायरों का शस्त्र नहीं है ।
महाभारत शांतिपर्व (१४० - ६७) में कहा हैं -
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नाऽसाध्यं मृदुना किंचित् तस्मात् तीक्ष्णतरो मृदुः ॥
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मृदु - प्रेमयुक्त उपायसे कुछ भी असाध्य नहीं है अतः मृदु सबसे अधिक क्षीण - धारदार माना गया है । इस लिये गांधीजीने कहा कि अहिंसा कायरों का शस्त्र नहीं हैं निर्बल का शस्त्र नहीं है ।
अहिंसा आध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है उसीके आधार से व्यक्ति और समष्टि के जीवन में शांति और संवादिता सुस्थापित हो सकती है । अहिंसा की अवधारणा बीजरूप से सर्व धर्मों में पायी जाती है । अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से शांतिमय सहअस्तित्व संभव बनेगा |