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जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा का निरुपणः ..
तुलनात्मक दृष्टि से
अहिंसा की अवधारणा बीजरूप में सभी धर्मोंमें पायी जाती है । यज्ञयाग एवं पशुबलि के समर्थक वैदिक और यहूदी धर्मग्रंथों में भी अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं । लेकिन जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा के बारे में विशेष-सूक्ष्म रूप से विचारणा हुई है । जैन धर्म में पंच महाव्रतों में और बौद्ध धर्म में पंचशील के रूप में अहिंसा को सर्व प्रथम स्थान दिया गया है।
अहिंसा लक्षणो धर्मस्तितिआलक्षणस्तथा ।
यस्य कष्टे धृति स्ति, नाहिंसा तत्र सम्भवेत् ॥
धर्म का पालन पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा लक्षण है तितिक्षा । जो कष्ट में धैर्य नहीं रख पाता, उसके लिये अहिंसा की साधना सम्भव नहीं । इससे भी आगे बढ़कर अहिंसा को ही परमो धर्म - अहिंसा परमो धर्म - कहा गया है। और कहा गया है -
सव्वाओवि नईओ कमेण जह सायरम्मि निवडंति । .
तह भगवाई अहिंसा सव्वे धम्मा सम्मिलंति ॥
जैसे सब नदीयाँ सागर में मिल कर एकरूप हो जाती हैं, इस तरह सब धर्म अहिंसा में ही पर्यवसित होते हैं । अहिंसा का स्वरूप :
____ अहिंसा का शब्दार्थ है हिंसा का निषेध । यह उसका निषेधरूप है । उसके विधेयात्मक रूप में प्राणीपात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग-द्वेष-मोह आदि कषायों के अभाव को हम बता सकते हैं । वस्तुतः अहिंसा का मूलाधारं जीवन के प्रति सम्मान,