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________________ ६४ . बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम . ४. आरम्भजा - जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा - जैसे भोजन ___ का पकाना । यह निर्वाहात्मक हिंसा है। जहाँ तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा की बात है, एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता, क्योंकि जब तक शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का सर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति होना ही आवश्यक हैं । यद्यपि इस स्तर पर मनुष्य अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। जैन धर्म में उद्योगव्यवसाय एवं भरण-पोषण के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा करने का निषेध है। चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद - ६,६५,१४) के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' (यजुर्वेद, ३६, १८) के रूप में सर्वप्राणियों के प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो किंतु वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग है जिनमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं । यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही । 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यावहारिक जीवन में यह मानव-प्राणी से अधिक उपर नहीं उठ सका । श्रमण परम्पराएं इस दिशा में और आगे आयीं और उन्होंने अहिंसा की व्यावहारिकता का विकास समग्र प्राणी-जगत् तक करने का प्रयास किया । किन्तु वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा था। मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिक अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । उपासकदशांग सूत्रमें आनंदादि धनाढ्य उपासकों कैसी अनासक्तिसे संपत्तिका त्याग और परिमाण करते हैं उनके सुंदर अनुकरणीय दृष्टांत मिलते हैं। गृहस्थ श्रावक अपनी उपलब्ध संपत्ति के उपभोग के लिये अपने आप नियंत्रण रखता है। . गृहस्थ जीवन में कभी कभी हिंसा अपरिहार्य ईर्यापथिक भी हो जाती है। तब भी संयम और इच्छाओं के नियंत्रण से उससे विरत हो सकते हैं । आजीविका के बारे में पंद्रह कर्मदान के अतिचार बताये गये हैं जो पर्यावरण की समतुलां के लिए भी उपयोगी सिद्ध होते हैं । उपासकदशांग सूत्र में भी उसका उल्लेख मिलता
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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