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________________ बौद्ध तस्वमीमांसा : हीनयान संप्रदाय के अनुलक्ष्य में - यहाँ प्रथम बारह तो आयतन हैं । इन्द्रिय और अपने अपने विषयों के संपर्क से छ: विशेष विज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस तरह धातुओं की संख्या अठारह होती जगत का विषयगत विभाग : . विषयगत दृष्टि से जगत के धर्मों के दो भाग किये जाते हैं : असंस्कृत धर्म तथा संस्कृत धर्म । असंस्कृत धर्म का अर्थ है - जो नित्य, स्थायी तथा शुद्ध है तथा किसी हेतु या कारण की सहायता से उत्पन्न न हो । असंस्कृत धर्म अपरिवर्तित है तथा किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिये संघटितं नहीं होते । संस्कृत धर्म अनित्य, अस्थायी तथा अशुद्ध होते हैं । वे हेतु-प्रत्यय के द्वारा वस्तुओं के संघटन से उत्पन्न होते हैं । असंस्कृत धर्म के. भेद - सर्वास्तिवाद के अनुसार 'असंस्कृत धर्म' तीन हैं - 'प्रतिसंख्यानिरोध', 'अप्रतिसंख्यानिरोध' तथा 'आकाश' । - धर्म का एक तात्पर्य है - भाव, सत् अथवा वस्तु । वैभाषिकों की दृष्टि से सभी धर्मों की सत्ता यद्यपि पृथक् है, परंतु उनके .संघात से जगत् के निर्माण की कल्पना की गई है । धर्म की सूक्ष्मतम व्याख्या निम्नलिखित प्रसिद्ध पद्य में है : ये धर्मा हेतुप्रभवा हेतु तेषां तथागतो ह्यवदत् । अवदच्च यो निरोधो एवंवादी महाश्रमणः ॥ .. ... अर्थात् प्रत्येक धर्म प्रतीत्यसमुत्पन्न होता है और उसका निरोध भी होता - है।६ डॉ. शेखात्सकीने धर्मता के विश्लेषण में उसकी प्रमुख विशेषताओं का आकलन किया है - धर्मता - नैरात्म्य - क्षणिकत्व, संस्कृतत्व, आश्रय - अनाश्रवत्व, संक्लेश -- व्यवदानत्व, दुःखनिरोध और निर्वाण । (१) प्रतिसंख्यानिरोध - 'प्रतिसंख्या' शब्द का अर्थ है, 'प्रज्ञा' और उसके द्वारा जो निरुद्ध होता है उसे 'प्रतिसंख्यानिरोध' कहा जाता है। अर्थात् 'प्रज्ञा' के द्वारा सभी 'सास्रव', अर्थात् राग, द्वेष, आदि धर्मों का जो पृथक्-पृथक् विसंयोग है, वही 'प्रतिसंख्यानिरोध' है । इसके उदय होने से राग तथा द्वेष का निरोध हो जाता है और इस क्रम से पृथक्-पृथक् अन्य सभी सास्रव धर्मों का भी निरोध हो जाता है । (२) अप्रतिसंख्यानिरोध - 'प्रज्ञा' के बिना ही जो निरोध होता है, उसे
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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