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________________ बौद्ध तत्त्वदर्शन और प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त अन्तर्भूत हो जाती है । शील, समाधि और प्रज्ञा बौद्ध धर्म की आधारभूमि है । बौद्धदर्शन की मूल भित्ति ये पंच स्कंध और प्रतीत्य समुत्पाद (कार्यकारण) का नियम है । पाँच स्कंध में रूप स्थूल और चित्त-चैतसिक सूक्ष्म है । ये पाँच स्कंध क्षणिक और नित्य परिवर्तनशील है। इनमें नित्य और कूटस्थ कोई नहीं है। प्रतीत्य समुत्पाद के नियम अनुसार ये उत्पन्न होते हैं, नाश पामते हैं और पुनः अपनी भवशक्ति से जन्म लेते हैं । इन्हीं पाँच उपादानों का एकत्र संघटन शरीर रूप में प्रगट होता है । इसके बारे में वसुबन्धु का स्पष्ट कथन है - . .. नात्मास्ति स्कन्धमात्रं तु क्लेश कर्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तव्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥ कोश ३/१८ . पंचस्कन्धात्मक आत्मा क्षणिक है, यह संसरण में असमर्थ है। हमारा यह भी कहना है कि किसी आत्मा के अभाव में, किसी नित्य द्रव्य के अभाव में, क्लेश और कर्म से अभिसंस्कृत स्कन्धों का सन्तान (प्रवाह) माकी कुक्षि में प्रवेश करता है, और वही स्कन्ध-सन्तान मरण-भव से उपपतिभव पर्यन्त विस्तृत होता है और इसका स्थान अन्तराभव-सन्तति लेती है । पंच स्कन्धों के साथ प्रतीत्य समुत्पाद का नियम अविनाभूत है । यह .: हेतुप्रत्ययता का वाद ही कर्म-क्लेश-प्रत्ययवश उत्पत्ति, उत्पत्तिवश कर्म-क्लेश, पुनः अन्य कर्म-क्लेश-प्रत्ययवश उत्पत्ति, इस प्रकार भव-चक्र का अनादित्व सिद्ध होता है। इस भव-चक्र के तीन अध्व या मार्ग हैं जिनमें यह पुनः पुनः घूमता है, एक अतीत या पूर्व-भव, दूसरा अनागत या अपर-भव और इन दोनों के बीच में तीसरा . वर्तमान या प्रत्युत्पन्न-भव । प्रतीत्य-समुत्पाद के बारह अंग है, अतः यह द्वादशार चक्र भी कहा जाता है। प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत : . पंच स्कंधों के साथ प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत अविनाभाव संबंधित है। गौतम बुद्धने प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त द्वारा यह समझाया कि दुःख - ईश्वरनिर्मित या भाग्यप्रेरित नहीं है इसके लिये कारण है । प्रतीत्य समुत्पाद अविचल कार्यकारणभाव के आधार पर दुःखनिरोध की शक्यता का निर्देश करता है । . कारण के सद्भाव में उत्पत्ति और कारण के असद्भाव में उत्पत्ति का भी अभाव होता है । इस कार्यकारण शृंखला के बार अंग हैं - निदान है, अतः उसे द्वादश निदान और भवचक्र भी कहते हैं ।
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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