________________
बौद्ध तत्त्वदर्शन और प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत
भारतीय दर्शन के क्षेत्र में पांचवीं छठी शताब्दी पूर्व का काल वस्तुतः वैचारिक क्रान्ति का काल था। क्योंकि इस काल में अनेक महापुरुषों और मनीषियों के चिन्तन और उपदेश के साथ ही महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है। बौद्धदर्शन की भूमिका :
___इस समय में अनेक संप्रदायक प्रचलित थे। उनमें ज्यादातर वैदिक धर्मदर्शन के विपरीत अवैदिक दर्शन की ही परंपरा थी, जिसे श्रमण परंपरा के नाम से अभिहित की जाती है। इस परम्पराओं का सामूहिक स्वर पुरोहितों, कर्मकाण्डों, ईश्वर, आत्मा, वेद आदि के विरुद्ध था और विपरीत रूप से दुःखवादी, निवृत्तिवादी, निरीश्वरवादी, प्रारब्धवादी जैसे विचारों का पोषक था । इनके कारण समाज में अंधश्रद्धा, भूतप्रेत आदि की पूजा, सहेतुक होनेवाले क्रियाकाण्ड आदि का महत्त्व बढ़ गया था। याने धार्मिक दृष्टि से समाज में एक प्रकार की अराजक स्थिति प्रवर्तित हुई थी। उस वक्त श्रमण विचारधारा में बौद्ध, जैन, आजीवक, चार्वाक आदि का उल्लेख होता है, लेकिन उसके साथ मंखली गोशाल का नियतिवाद, पूर्णकश्यप का अक्रियावादे, अजित केशकम्बल का उच्छेदवाद, प्रक्रूध कात्यायन का अन्योन्यवाद एवं संजय वलट्ठिपुत्त का विक्षेपवाद भी प्रचलित था । .. इनके साथ चार्वाक का सुखवाद या देहात्मवाद - भी प्रचलित था । यहाँ हम एक बात स्पष्ट रूप से और Logically भी समझ सकते हैं कि जिस समाज में ऐसी विचारधाराओं का बाहुल्य हैं, हिंसा, चोरी, जूठ, परस्त्रीगमन जैसे दुष्कृत्यों पर कोई नियंत्रण न हो, ऐसे समाज में न तो लोग सुख, शांति और सुरक्षा से रह सकते हैं और न तो समाज में भी सुव्यवस्था और सुसंवादिता की स्थापना संभव