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________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम विनाश करेंगे कि जिससे बाह्य पर्यावरण दुषित हो, और न तो हम मन-वचन-वाणी से ऐसे कार्य करेंगे कि जिससे अपने या दूसरों के हृदय में दुःख शोक की उद्भावना हो । मैत्रीभावना और आंतरिक-बाह्य पर्यावरण की विशुद्धि : . गौतम बुद्धने चार ब्रह्मविहारों की बात की हैं । मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा । इन भावनाओं से अपने और क्रमशः सारे विश्व को आप्लावित - परिप्लावित करनेका उपदेश उन्होंने दिया है । माता अपने इकलौते पुत्र के प्रति जैसा स्नेहभाव रखती है, ऐसा भाव हमें सबकी और रखना चाहिये । और भी कहा है...... मेत्तं च सब्ब लोकस्मि मानसं पावये अपरिमाणं । :.. उद्धं अधो च तिरियंच, असंबाधं अवेरं असक्तं ॥९. ऐसी मैत्रीभावना चरितार्थ करने के बाद ही मनुष्य 'अकोधेन जिने कोध. असाधुं साधुना जिने' क्रोधी को अक्रोध से और असाधु को साधुता से पराजित करता है। इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत गौतम बुद्ध के जीवन से ही प्राप्त होते हैं । मदोन्मत्त हाथी को वे क्षणभर में ही वश कर लेते हैं और अंगुलिमाल का हृदयपरिवर्तन उनकी महान सिद्धि है। मनुष्य की दुषित रुग्ण, विकृत, हिंसा की मनोवृत्ति से आसपास के वातावरण में और प्राणियों के चित्त में कैसे आतंक फैलता है, उसका दृष्टांत अंगुलिमाल की कथा से प्राप्त होता है । अंगुलिमाल जैसा डाकू-जिसका भीतरी पर्यावरण क्रोधादि कषायों से दूषित है - और कषायों क्रियान्वित होने से लूट, हत्या आदि घटनायें घटती हैं। जो अन्य लोगों के जीवन में भय, अशान्ति और असलामती प्रादुर्भूत करती है । अरण्य के सुंदर, मनोभावन प्राकृतिक परिवेश में भी आतंक छा गया है । वृक्षों और पुष्पों का सौंदर्य किसी को सांत्वना नहीं दे सकता है । इस तरह दोनों रूपों से - आंतरिक और बाह्य - वातावरण कलुषित और भयप्रद बनता है। ___ यहाँ पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए अहिंसा और मैत्री भावना कैसे सफल होती है - वह हम गौतम बुद्ध और अंगुलिमाल के मिलन की घटना से जान सकते हैं। गौतम बुद्ध निर्भयता, मैत्री और करुणापूर्ण भावना से अंगुलिमाल को सहज ही में वश कर लेते हैं और अंगुलिमाल अपने शस्त्र-अस्त्रों के साथ हिंसा-क्रोध आदि मलिन वृत्तियों को भी जल में बहा देता है। उसे आश्चर्य होता है कि कैसे तथागत बुद्धने उसका परिवर्तन किया। वह कहता है :
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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