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बौद्ध धर्मशासन और पर्यावरण संरक्षण द्वारा कथित 'सचित्त परियोदपन' - चित्त की शुद्धि - मनहृदय की पवित्र प्रेमभावना का पुनःप्रागट्य हो, जिससे सर्वत्र व्याप्त अनैतिकता का दूषित वातावरण दूर हो सके। मानवीय मूल्यों का हास नैतिकता की कमी के कारण है ।
- स्थल रूप से होनेवाली हिंसा का त्याग तो अनिवार्य रूप से करना चाहिये - लेकिन उन्होंने किसीके हृदय को भी ठेस न पहुँचे, ऐसे आचारविचार का सदुपदेश दिया। "मा वोच फरुसं कोचि" किसीको कठोर वचन न कहें। और 'अनुपवादो अनुपपातो'.... बनना अर्थात् किसीसे विवाद या कलह न करना और किसीका घात न करना ।
आजीविका के लिये भी सम्यक्त्व का अनुरोध किया । मन-वाणी-काया से सब अकुशल कर्म-हिंसा, चोरी, मिथ्याचार, मृषावाद, परनिंदा, कठोर वचन या लोभ-द्वेष-मोह प्रेस्ति कर्म - का त्याग करके कुशल धर्म का संचय करना और चित्त की विशुद्धि - यही उनका धर्मशासन है।
सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा ।
सचित्त परियोदपनं एतं बुद्धानुसासनं ॥१६ यही एक गाथा में बौद्धदर्शन का सारा रहस्य गोपित है । इसके पालन से ' मनुष्य के बाह्य और भीतर दोनों प्रकार का पर्यावरण शुद्ध-परिशुद्ध रहता है । संयुक्तनिकाय के ब्राह्मणसुत्तमें कहा है -
यो च कायेन वाचा च, मनसा च न हिंसति ।
सर्व अहिंसको होति, यो परं न विहंसतीति ॥ और धम्मपद की इस गाथा भी रागद्वेष से रहित होने का बोध देती है :
.. नत्थ राग समो अग्गि नत्थि दोससमो कलीं ।
___ नत्थि खन्धादिसा दुक्खा नत्थि सन्तिपरं सुखं ॥ मनकी शांति के परे कोई सुख नहीं है ।
इसके लिये आवश्यकता है - चित्त के सारे कषायों का क्षय करना । सर्प जैसे अपनी कंचूली का त्याग करता है, इस तरह हमें राग-द्वेष-लोभ-मोह-मत्सर आदि का त्याग करना चाहिए । तभी संयमपूर्ण, अनासक्त, रागरहित संवादी जीवन संभव होगा। तब हम स्वार्थ और लोभवश होकर न तो प्राकृतिक पदार्थों का व्यर्थ