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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम :
शक संवत् १४७ क्रोधन संवत्सर की कार्तिकी सुदी तृतीया दिन जब कि जयसिंह नामका राजा पृथ्वी का शासन करता था उस समय उक्त वादिराजसूरीने यह भगवान जिनेन्द्र का चरित्र पूर्ण किया था। वे आप लोगों को कल्याण प्रदान करे।
. इस काव्य के रचयिता वादिराजसरि द्रविडसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ (गच्छ) और असंगल अन्वय (शाखा) के आचार्य थे । इनकी उपाधियाँ षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी थीं। ये श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकदायन व्याकरण की टीका) के कर्ता दयापाल. मुनि के सतीर्थ या गुरुभाई थे । लगता है वादिराज इनकी एक तरह की पदवी या उपाधि थी, वास्तविक नाम कुछ और रहा होगा पर उपाधि के विशेष प्रचलनं से वह नाम ही बन गया। श्रवणवेला से प्राप्त मल्लिषेणप्रशस्ति में वादिराज की बड़ी ही प्रशंसा की गई है।
वादिराज का युग जैन साहित्य के वैभव का युग, था। उनके समय में सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, अभयनन्दि तथा चन्द्रप्रभचरित काव्य के रचयिता वीरनन्दि, कर्नाटकदेशीय कवि रन्न, अभिनवपम्प एवं नयसेन आदि हुए थे । गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के रचयिता ओडयदेव वादीभसिंह और उनके गुरु पुष्पसेन, गंगराज राचमल्ल के गुरु विजयभट्टारक तथा मल्लिषेणप्रशस्ति के रचयिता महाकवि मल्लिषेण और रुपसिद्धि के कर्ता दयापाल मुनि इनके समकालीन
विषयवस्तु :
काव्य के आरंभ में कवि भगवान पार्श्वनाथ को नमस्कार करते हैं :
श्री वधूनवसंभोगभव्यानंदैकहेतवे।
नमः श्रीपार्श्वनाथ दानवेंद्रार्चिताङ्धये ॥
यजेंद्र द्वारा पूजनीय चरण कमल वाले, और मोक्ष लक्ष्मीरुपी वधू के नवीन संभोग से उत्पन्न हुये अपूर्व आनंद को भव्यों के लिये प्रदान करने वाले श्री पार्श्वनाथ हैं, उन्हें हमारा बारंबार नमस्कार है।
बाद में कविने श्री पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का क्रमशः आलंकारिक शैली में वर्णन कीया है, और अंतिम सर्गो में भगवान पार्श्वनाथ के जन्म - बोधि आदि कल्याणकां का भी विशद निरुपण कीया है ।