SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री शांतिनाथ पुराण के मूल रचयिता भगवंत आचार्य श्री सकलकीर्ति जी का संक्षिप्त जीवन परिचय विपुल साहित्य निर्माण की दृष्टि से आचार्य सकलकीर्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत वांगमय को संरक्षण ही नहीं दिया, अपित उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार किया । आचार्य सकलकीर्ति ने प्राप्त आचार्य परम्परा का सर्वाधिक रूप में पोषण किया है। तीर्थयात्राएँ कर जनसामान्य में धर्म के प्रति जागरूकता उत्पन्न की और नवमंदिरों का निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएँ करायीं । आचार्य सकलकीर्ति ने अपने जीवनकाल में १४ बिम्ब प्रतिष्ठाओं का संचालन किया था । गलिया कोट में संघपति मूलराज ने इन्हीं के उपदेश से चतुर्विंशति जिनबिम्ब की स्थापना की थी। नागद्रह जाति के श्रावक संघपति ठाकरसिंह ने भी कितनी ही विम्ब प्रतिष्ठाओं में योग दिया । आबू में इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसी की एक विशाल प्रतिमा परिकर सहित स्थापित की गयी थी। निःसन्देह आचार्य सकलकीर्ति का असाधारण व्यक्तित्व था । तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी आदि भाषाओं पर अपूर्व अधिकार था। भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेशरत्नमाला नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में सकलकीर्ति को अनेक पुराण ग्रन्थों का रचयिता लिखा है। भट्टारक शुभचन्द्र ने भी सकलकीर्ति को पुराण और काव्य ग्रन्थों का रचयिता बताया है। आचार्य सकलकीर्ति का जन्म वि.सं. १४४३ (ई. सन् १३८६) में हुआ था। इसके पिता का नाम कर्मसिंह और माता का नाम शोभा था । ये हूंवड़ जाति के थे और अणहिलपुर पट्टन के रहनेवाले थे। गर्भ में आने के समय माता को स्वजदर्शन हुआ था। पति ने इस स्वर्ण का फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पुत्र की प्राप्ति होना बतलाया था। बालक का नाम माता-पिता ने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदार्थ' भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंस के समान शुभ और शरीर ३२ लक्षणों से युक्त था । पाँच वर्ष की अवस्था में पूर्णसिंह का विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया । कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमय में ही शास्वाभ्यास पूर्ण कर लिया । माता-पिता ने १४ वर्ष की अवस्था में ही पूर्णसिंह का विवाह कर दिया । विवाहित हो जाने पर भी इनका मन सांसारिक कार्यों के बन्धन में बंध न सका । पुत्र की इस स्थिति से माता-पिता को चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने समझाया-"अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्था में अवश्य करना चाहिये । संयम प्राप्ति के लिए तो अभी बहुत समय है। यह तो जीवन के चौथे पन में धारण किया जाता है। कहा जाता है कि माता-पिता के आग्रह से- ये चार वर्षों तक घर में रहे और १८ वें में प्रवेश करते ही वि. सं. १४६३ (ई. सन् १४०६) में समस्त सम्पत्ति का त्याग कर भट्टारक पद्मनन्दि के पास नेणवां में चले गये। भट्टारक यशः कीर्ति शास्वभण्डार की पट्टावली के अनुसार ये २६ वें वर्ष में नेणवां गये थे । ३४ वें वर्ष में आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेश में वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे । इस समय ये नग्नावस्था में थे। आचार्य सकलकीर्ति ने बागड़ और गुजरात में पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर श्रावकों में धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनों में उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरों की संख्या भी बहुत कम थी तथा साधु के न पहुंचने के कारण अनुयायियों में धार्मिक शिथिलता आ गयी थी। अतएव इन्होंने गाँव-गाँव में विहार कर लोगों के हृदय में स्वाध्याय और भगवद्भक्ति की रुचि उत्पन्न की।
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy