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प्राक्कथन आज से २६०० वर्ष पूर्व इस भूमण्डल पर तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का अवतरण हुआ था। वह तन और मन दोनों से अद्भुत सुन्दर थे। उनका उन्नत व्यक्तित्व लोक कल्याण की भावना से युक्त था । उन्होंने कामनाओं और वासनाओं पर विजय पाकर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए उज्जवल मार्ग प्रशस्त किया । वह कर्मयोग की साधना के शिखर थे। उनके व्यक्तित्व में साहस सहिष्णुता का अपूर्व समावेश था। उन्होंने मानवीय मूल्यों को स्थिरता प्रदान करते हुए, प्राणियों में निहित शक्ति का उदघाटन कर उन्हें निर्भय बनाया । तथा अज्ञानांधकार को दूर कर सत्य और अनेकान्त के आलोक से जन नेतृत्व किया । उनका संवेदनशील हृदय करुणा से सदा द्रवित रहता था । हिंसा, असत्य, शोषण, संचयं और कुशील से संत्रस्त मानवता की रक्षा की, तथा वर्वर्तापूर्वक किए जाने वाले जीवों के अत्याचारों को दूर कर अहिंसा मैत्री भावना का प्रचार किया ।
उनकी तपः साधना विवेक की सीमा में समाहित थी । अतः सच्चे अर्थों में वह दिव्य तपस्वी थे। वह प्राणीमात्र का उदय चाहते थे । तथा उनका सिद्धान्त था, कि दूसरों का बुरा चाहकर कोई अपना भला नहीं कर सकता है। कार्य, गण, परिश्रम, त्याग, संयम ऐसे गण है जिनकी उपलब्धि से कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है। उनका जीवन आत्म कल्याण और लोकहित के लिए बीता । लोक कल्याण ही उनकी दृष्टि और लक्ष्य था । उनका संघर्ष बाह्य शत्रुओं से नहीं अन्तरंग काम क्रोध वासनाओं से था । वह तात्कालीन समाज की कायरता, कदाचार, और पापाचार को दूर करने के लिए कटिवद्ध रहते थे। उनके अपार व्यक्तित्व में स्वावलम्बन की वृत्ति तथा स्वतंत्रता की भावना पूर्णतः थी। उन्होंने अपने ही पुरुषार्थ से कर्मों का नाश किया । उनका सन्देश था कि जीवन का वास्तविक विकास अहिंसा के आलोक में ही होता है । यह कथन अपने जीवन में चरितार्थ कर साकार किया । दया प्रेम और विनम्रता ने महावीर की अहिंसक साधना को सुसंस्कृत किया। उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व से कोटि कोटि मानव कतार्थ हो गए।
भगवान महावीर में बाहय और आभ्यांतर दोनों ही प्रकार के व्यक्तित्वों का अलौकिक गुण समाविष्ट था। उनके अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य गुणों के समावेश ने उनके आत्म तेज को अलौकिक बना दिया था । उनके व्यक्तित्व में निःस्वार्थ साधक के समस्त गुण समवेत थे। अहिंसा ही उनका साधना सूत्र था । अनंत अन्तरंग गुण उनके आध्यांतर व्यक्तित्व को आलोकित करते थे। वह विश्व के अद्वितीय क्रान्तिकारी तत्वोपदेशक और जन नेता थे । उनका व्यक्तित्व आद्यन्त क्रान्तिकारी त्याग तपस्या संयम अहिंसा आदि से अनुप्रमाणित रहा।
भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रवोधित द्वादशांग वाणी ही जैनागम है समस्त जैनागम को चार भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें चार अनुयोग भी कहते हैं इनसे सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान जानना चाहिए । श्रुत विभाजन की आशिक जानकारी निम्नानुसार है:
प्रथमानुयोग- इस अनुयोग अन्तर्गत कथाएँ, चरित्र व पुराण हैं । यह सम्यक् ज्ञान है । इसमें परमार्थ विषय का अथवा, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों का, वेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का कथन है । दृष्टिवाद के तीसरे भेद अनुयोग में पांच हजार पद है । इसके अन्तर्गत अवान्तर भेदों में त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन है। मिथ्यादृष्टि, अव्रती, अल्पज्ञानी व्यक्तियों के उपदेश हेतु यह प्रथमानुयोग मुख्य है।
करणानुयोग-कर्म सिद्धान्त व लोक अलोक दिमाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रगट कराने वाला ही सम्यकलान है । इस अनुयोग से उपयोग लगता है । पापवृत्ति छूटती है । धर्म की वृद्धि होती है तथा तत्व ज्ञान की प्राप्ति शीघ्र होती है । जीव के कल्याण मार्ग पर चलने केलिए विशेष रूप से यह करणानुयोग है।
चरणानयोग-जीव के आचार विचार को दर्शाने वाला सम्यकज्ञान है । यह गृहस्थ और मुनियों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के अंगभूत ज्ञान को चरणानुयोग शास्त्र के द्वारा विशेष प्रकार से जाना जाता है । जीव तत्व का ज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करता है । चरणानुयोग के अभ्यास से जीव का आचरण एक देश या सर्वदेश वीतराग भाव अनुसार आचरण में प्रवर्तता है।
द्रव्यानुयोग- इस अनुयोग में चेतन और अचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्वों का निर्देश रूप कथन है । इसमें जीव, अजीव, सुतत्वों को, पुण्य, पाप,