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________________ . 4 Fb FRE ज्ञान के द्वारा तीनों जगत् के साम्राज्य का कारण एवं सुगम तपश्चरण का भार स्वीकार कीजिए । हे देव ! आप विद्वान एवं मूढ़ दोनों को उपदेश देनेवाले हैं, तब क्या हम सब के द्वारा प्रबुद्ध किए जा सकते हैं ? क्या प्रकाश करने के लिए सूर्य को दीपक दिखाया जाता है ? इसलिए हे नाथ ! तपश्चरण कर आप समस्त संसार को पवित्र कीजिएं एवं केवलज्ञान प्राप्त कर शीघ्र ही मनुष्यों का उपकार कीजिए । हे देव ! आप धर्म, अर्थ, काम-इन तीनों पुरुषार्थों के पारगामी हैं, चक्रवर्ती हैं, कामदेव हैं, तीर्थंकर हैं एवं तीनों लोकों के स्वामी हैं । हे नाथ ! अब चौथे मोक्ष-पुरुषार्थ को सिद्ध करने के लिए आप चारित्र धारण कीजिए, क्योंकि चारित्र धारण कर ही आप संसार से भव्य जीवों का उद्धार कर मोक्ष प्राप्त करेंगे । जिस प्रकार संसार में आकाश से कोई विराट नहीं है एवं परमाणु से कोई लघु नहीं है। उसी प्रकार हे देव ! तीनों काल में आप से श्रेष्ठ कोई देव नहीं है ॥१७॥ इसलिए हे श्री जिनेन्द्र ! दिव्य मूर्ति को धारण करनेवाले, जगत् को आनन्द प्रदायक परमेष्ठी, आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है । आपका ज्ञान समस्त संसार के सम्बन्ध में जानने के समर्थ है, इसलिये आपको नमस्कार है । आप सज्जनों के गुरु हैं, इसलिये आपको नमस्कार है । आप मुक्ति-रमणी के पति हैं, इसलिये आपको नमस्कार है । आप कल्याणक के सागर हैं, इसलिये आपको नमस्कार है । हे देव ! इस स्तुति के द्वारा हम आप से संसार की लक्ष्मी (वैभव) की याचना नहीं करते हैं, किन्तु हमें आप अपने गुणों का समूह ही प्रदान कर दीजिये। हे भगवान श्री शान्तिनाथ ! इन्द्र भी आपके चरण कमलों की पूजा करते है, आप संसार में सबके नेत्रों को उल्लसित करनेवाले हैं, आप ही जीवों के तीनों कालों के भवों का वर्णन करने में समर्थ हैं । आप ही समस्त कर्म रूपी शत्रुओं को परास्त करनेवाले हैं, आप ही तीनों लोकों के जीवों को भव पार कराने में प्रवीण (चतुर) हैं, आपकी सर्वदर्शी हैं, आप ही सर्वज्ञ हैं एवं आप ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती तथा कामदेव पद को धारण करनेवाले हैं । इसलिये हे देव ! हमारे लिए तो आप ही शरण हैं।" इस प्रकार उन लौकान्तिक देवों ने भगवान की स्तुति की, प्रशंसा की एवं बारम्बार उन्हें प्रणाम किया तथा अपना नियोग साधन कर वे प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थान को चले गये । जिस प्रकार चक्षु के द्वारा पदार्थों को देखने में दीपक सहायक होता है, उसी प्रकार लौकान्तिक देवों के वचन भगवान की दीक्षा में सहायक हो गये थे। भगवान जब तक अपना राज्य त्यागने एवं वन में गमन के लिए प्रस्तुत हुए, तब तक चारों निकाय 844 २४१
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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