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________________ श्री शां भ्रमण किया करता है, कल्पवृक्ष के समकक्ष दुर्लभ श्रेष्ठ कुल में जन्म नहीं ले सकता । कदाचित् श्रेष्ठ कुल में जन्म भी पा ले तो दीर्घायु व्याधि रहित काया, इन्द्रियों की पूर्णता, रत्नत्रय की प्राप्ति, कषायों की मन्दता, अरहन्तदेव के वर्णित शास्त्र, निर्ग्रन्थ गुरु, तप, सम्यक्दर्शन - ज्ञान चारित्र आदि की प्राप्ति उत्तरोत्तर दुर्लभ है । कदाचित् असीम भाग्योदय से ये सर्व संयोग प्राप्त हो भी जाएं तो चिन्तामणि रत्न सदृश ध्यान की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । इन समस्त को प्राप्त कर भी मनुष्य यदि धर्म साधन करने में या मोक्ष प्राप्त करने में प्रमाद करे, तो फिर वह भाग्यहीन सदा-सर्वदा संसार रूपी भव-वन भ्रमण ही करता रहेगा । तदुपरान्त यह जीव कोटि सागर कालावधि तक भी समुद्र में गिरे हुए माणिक के समान मनुष्य पर्याय, श्रेष्ठ कुल एवं धर्म के साधन पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है । यही समझ कर बुद्धिमान जन रत्नत्रय की सामग्री प्राप्त कर धर्मसाधन में विशेष प्रयत्न करते हैं । उस धर्म के सेवन से मोक्ष में जा विराजमान होते हैं ॥१३०॥ इस संसार में मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, तदुपरान्त सु-देश, आर्यखण्ड, उत्तम कुल, ना विवेक ज्ञान, आरोग्यता, इन्द्रियों की पूर्णता, सच्चा गुरु, तपश्चर्या, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । इसलिये धार्मिक पुरुष इनको प्राप्त कर सदैव विशेष प्रयत्न से चारित्र धारण कर मोक्ष सिद्ध किया करते हैं । इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ ति ना थ क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य - यह दशांग रूपी उत्तम धर्म कहलाते हैं । यही धर्म मोक्ष का कारण इसीलिये ज्ञानी मनुष्यों को मन-वचन-काय से क्षमा आदि दशांग धर्मों को धारण करना चाहिये । बुद्धिमान जन धर्म से ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर पाते हैं, धर्म से ही चक्रवर्ती की विभूति, इन्द्र के सुख, स्वर्ग, राज्य, कीर्ति एवं दिव्य देह प्राप्त करते हैं। तीनों लोकों में जो पदार्थ दुर्लभ हैं, जो दूर हैं एवं जो अत्यन्त कठिनता से प्राप्त हो सकते हैं; वे समस्त भी धर्मात्मा जीवों को धर्म के प्रभाव से अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं । धर्म से ही पुत्र-पौत्र आदि कुटुम्ब का सुख प्राप्त होता है, धर्म से ही सुख की सामग्री प्राप्त होती है, धर्म से ही रूपवती भार्या का संयोग होता है एवं धर्म से ही सेवक आदि सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । जिसके धर्म का उदय होता है, उसके पास सुख प्रदायक तीनों लोकों की लक्ष्मी गृह की दासी के सदृश स्वयं आ जाती है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इनका 'मूल कारण धर्म ही है। धर्म के अभाव में ये कुछ भी प्राप्त नहीं होते है । इसलिए बुद्धिमानों को सर्वप्रथम पु रा ण श्री शां ति 5 5 5 5 थ पु रा ण २३८
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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