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________________ . 44 4 फल प्रदान कर नष्ट हो जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा संसार में समस्त जीवों के होती है । तपश्चरण, संयम, ध्यान, परीषह जय एवं श्रुतज्ञान के द्वारा बिना फल दिये हुए कर्म नष्ट हो जाते हैं, यह अविपाक निर्जरा है । अविपाक निर्जरा पाप कर्मों का सम्वर करनेवाले मुनियों के ही होती है । जिस प्रकार अजीर्ण व्याधिग्रस्त प्राणी मल के निर्गम (निकल जाने) से स्वस्थ हो जाता है, उसी प्रकार तप एवं चारित्र के द्वारा कर्मों से निकल (नष्ट हो) जाने से ही यह जीव भी सुखी हो जाता है । सविपाक निर्जरा से अन्य कर्मों का आस्रव नहीं होता, इसलिये वह ग्रहण करने योग्य है ॥१००॥ जिस प्रकार प्रखर ग्रीष्म के प्रभाव से कच्चे आम भी पक जाते हैं, उसी प्रकार तपश्चरण रूपी आताप (ग्रीष्म) के प्रभाव से असंख्यात कर्म भी पक कर नष्ट हो जाते हैं । जो पुरुष संसार में पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करते हैं, उनका संग देने हेतु मुक्ति रूपी रमणी भी लालायित रहती है, फिर भला देवांगनाओं की तो गणना ही क्या है ? कर्मों की निर्जरा मुक्ति रूपी कन्या की जननी है, नरक रूपी गृह की अर्गल है, स्वर्ग प्राप्ति के लिए सीढ़ियों की पंक्ति है एवं सुख की खान है । मुनिगण सर्वप्रथम तो पापरूप अशुभ कर्मों का सम्वर कर उनकी निर्जरा करते हैं । अपनी आत्मा के हित साधक प्राणियों के लिए यह निर्जरा परम मित्र है, यह समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली है, सारभूत है एवं अनन्त सुख उत्पन्न करने हेतु पृथ्वी के समतुल्य है । यही समझ कर उत्तम बुद्धिमानों को अपने चित्त तथा इन्द्रियों का निरोध कर एवं तप-चारित्र-संयमादि धारण कर प्रतिदिन कर्मों की निर्जरा करनी चाहिये । कर्मों की यह अविपाक निर्जरा प्राणियों को संसार रूपी सागर से उत्तीर्ण करा देनेवाली है, मुक्ति रूपी रमणी की सखी है, नरक के सिंहद्वार की सशक्त अर्गला (साँकल) है, स्वर्ग के सुगम सोपानों (सीढ़ियों) की पंक्ति है, अनन्त सुखों की खान है एवं श्री तीर्थंकर के द्वारा भी सेव्य है । इसलिये बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने अभिलाषा से कायक्लेश, तप, जप आदि गुणों के द्वारा कर्मों की निर्जरा सदैव करते रहना चाहिये । इति निर्जरानप्रेक्षा ॥९॥ यह लोक अकृत्रिम है, नित्य है तथा ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक के भेद से तीन प्रकार का है-यह लोक ज्ञानगोचर है, डेढ़ मृदंग के आकार का है एवं चारों कोनों तक प्राणियों से भरा हुआ है । उत्पाद-ध्रौव्य सहित एवं अपने-अपने गुणों से भरपूर धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं जीवराशि से यह लोक भरा हुआ है । इसके अधोभोग में सप्त नरकों के चौरासी लाख बिल हैं, जो अपार दुःखों के आगार हैं ॥११०॥ उनमें 44444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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