SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 44 लभ मनुष्यों की काया विद्युत के समतुल्यं क्षणस्थायी है, मृत्यु के द्वारा यह अवश्य नष्ट होनेवाली है, वृद्धावस्था रूपी राक्षसी से आक्रान्त है एवं विष-अग्नि-सर्प-शत्रु आदि से नष्ट होनेवाली है ॥१०॥ पुत्र, मित्र, भार्या, बन्धु, सेवक, माता, पिता आदि सब अनित्य हैं, क्षणभर में जल के बुबुद् के समतुल्य नष्ट होनेवाले हैं । यह राज्य पाप का कारण है, पाप की खान है, छाया के सदृश चन्चल है, शत्रुओं से आवृत्त (घिरा) है एवं परस्पर शत्रुता उत्पन्न करानेवाला है । यह लक्ष्मी (वैभव) वीरांगना के समकक्ष चन्चला है, इसे प्राप्त करने के लिए विवेकहीन होकर चोर, शत्रु, राजा आदि से भी अनुनय करनी पड़ती है, समस्त जन इसका उपभोग करते हैं, यह अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होती है एवं घोर दुःखदायी है । घर-बाहर, गृहस्थी के सम्पूर्ण पदार्थ, राज्य-अलंकार एवं चक्रवर्ती की पदवी आदि समस्त कालरूपी अग्नि में दग्ध होकर भस्म हो जाते हैं । पूर्व पुण्य को प्राप्त हुए इन्द्रादिक देव भी आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं, फिर भला पुण्यहीन मनुष्यों की तो गणना ही क्या ? जिस प्रकार घंटी यन्त्र के द्वारा कुँए से जल बाहर निकल जाता है, उसी प्रकार घड़ी-दिन आदि समयमानकों द्वारा प्राणियों को दुर्लभ आयु भी सदैव घटती चली जाती है । इन समस्त तथ्यों पर विचार करता हुआ भला ऐसा मूर्ख कौन होगा, जो मोक्षमार्ग रूपी सुखसागर को त्याग कर पत्नी-कुटुम्ब आदि अनित्य पदार्थों में अपनी आसक्ति को प्रबल करेगा ? इसलिये बुद्धिमानों को कामभोगों से विरक्त होकर तप-चारित्र आदि के पालन द्वारा इस अनित्य काया से नित्य (शाश्वत) मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये । समस्त संसार को अनित्य समझ कर एवं मोक्ष को उत्तम तथा नित्य समझकर बुद्धिमानों को तत्काल ही अनन्त गुणों का सागर मोक्ष पद सिद्ध कर लेना चाहिये । संसार में समस्त वैभव धूलि के समतुल्य हैं एवं पुन्जीभूत पापों का कारण हैं । यह काया यमराज (मृत्यु) के अधीन है, विषयों से उत्पन्न हुआ सुख-दुःख क्षणस्थायी है, जीवन मेघराशि के सदृश चन्चल है, पुत्र-पत्नी आदि समस्त कुटुम्बीजन इन्द्रजाल के समकक्ष हैं । इस प्रकार समस्त पदार्थों को अनित्य या चंचल समझकर बुद्धिमानों को यथाशीघ्र उनका त्यागकर मोक्ष के लिए साधना करनी चाहिये ॥२०॥ इति अनित्यानुप्रेक्षा । जिस प्रकार वन में व्याघ्र द्वारा बन्दी बनाए गए मृग की प्राणरक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार इस संसार में व्याधि-मृत्यु आदि के द्वारा जकड़े हुए मनुष्यों का भी कोई शरण नहीं है । जिस प्रकार किसी 4 Fb FE २२९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy