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मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक प्रयत्न पूर्वक से व्रत - दान-पूजा - दीक्षा-तप-जप-यम आदि का पालन कर श्री जिनेन्द्र भगवान के वर्णित धर्म का पालन करना चाहिये ॥ ३२० ॥ तीनों लोक जिनके चरण-कमलों की पूजा करते हैं, जो पाप रहित हैं, एवं पुण्य के पुन्ज (स्थान) हैं, ऐसे वे भगवान श्री शान्तिनाथ सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञान का प्रसार करते थे, पापों का नाश करनेवाला धर्मध्यान धारण करते थे, मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्व के दिनों में सदैव प्रोषधोपवास धारण करते थे, सर्वदा न्याय एवं विवेक के अनुसार कार्य करते थे तथा श्रावक धर्म के योग्य उत्तम व्रतों का पालन करते थे । पूज्य, स्तुत्य एवं वन्दनीय वे श्री शान्तिनाथ भगवान संसार की अशान्ति का निवारण करें, धर्मात्माजनों के तथा मेरे अशुभ कर्मों का नाश करें, धर्मध्यान, निष्पाप शुक्लध्यान, रत्नत्रय एवं समाधिमरण प्रदान करें ।
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श्री शान्तिनाथ पुराण का जन्माभिषेक और राज्यलक्ष्मी का वर्णन करनेवाला चौदहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१४॥
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पन्द्रहवाँ अधिकार
मैं अपने समस्त पापों को शान्त करने के लिए अनन्त महिमाओं से विराजमान एवं समस्त सौभाग्य के सागर भगवान श्री शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अथानन्तर- इस प्रकार राज्य करते हुए जब भगवान को पच्चीस सहस्र वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन वे अपने अलंकार भवन में विराजमान थे । वहाँ पर उन्होंने एक दर्पण में अपनी दो छाया देखीं । छाया देखकर वे आश्चर्य के संग चित्त में विचार करने लगे- 'इसके भीतर यह क्या रहस्य है ?' अपने अवधिज्ञान से उन्होंने ज्ञात कर लिया कि यह समस्त उनकी ही काया से उत्पन्न हुआ है एवं उनके पूर्व जन्म की दो पर्याय हैं । उसका अनेक प्रकार से विश्लेषण करने लगे । चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम एवं काललब्धि से भगवान उसी समय वैराग्य को प्राप्त हुए । वे विचार करने लगे- 'जिस प्रकार यह छाया चन्चल है; उसी प्रकार राज्य पद, सम्पत्ति, आयु, रानियाँ, आदि समस्त वैभव क्षणभंगुर ।' तदनन्तर भगवान श्री शान्तिनाथ मोक्ष प्राप्त करने के हेतु अपने चित्त में वैराग्य दृढ़ करने के लिए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने लगे । अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ एवं धर्म- ये द्वादश अनुप्रेक्षायें कहलाती हैं । भगवान इन अनुप्रेक्षाओं का पृथक-पृथकं चिन्तवन करने लगे । वे विचार करने लगे-'देखो!
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